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बिहार में विश्वविद्यालय नियुक्तियों में लॉटरी सिस्टम: क्या योग्यता से बड़ी है किस्मत

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विश्वविद्यालय नियुक्तियों में लॉटरी सिस्टम

बिहार में उच्च शिक्षा और विश्वविद्यालय की नियुक्तियों पर लॉटरी प्रणाली का असर बहुत बहस का विषय बन चुका है। हाल के कदमों में विश्वविद्यालय और कॉलेज स्टाफ की नियुक्तियों के लिए लॉटरी का इस्तेमाल किया जाना गंभीर चर्चा का कारण बन गया है। आलोचनाओं का कहना है कि यह प्रयास शैक्षणिक मामलों की जड़ों से ध्यान हटा रहा है। उनका तर्क है कि योग्यता, अनुभव और पारदर्शिता जैसी बातें इन पदों के लिए जरूरी होनी चाहिए। यह लेख इस बदलाव का मतलब समझाने का निर्णय लिया है और जानने का प्रयास करता है कि ये शिक्षण व्यवस्था के लिये कैसे प्रभाव डालते हैं।

पदों का चुनाव लॉटरी के आधार पर

बिहार के विश्वविद्यालयों में नियुक्ति प्रक्रिया का इतिहास देखें तो पहले प्रिंसिपल और कुलपति जैसे पद चयन के लिए प्रतियोगिताएं और साक्षात्कार पर निर्भर थे। इन प्रथा का मकसद था कि सबसे योग्य उम्मीदवार ही इन शीर्ष पदों पर जाएं। फिर अचानक, इन पदों का चुनाव लॉटरी के आधार पर करने की व्यवस्था शुरू हो गई। कई लोगों का मानना है कि यह बदलाव पारदर्शिता बढ़ाने का प्रयास था, लेकिन इससे निष्पक्षता पर सवाल खड़े हुए हैं।

प्रिंसिपल और अन्य महत्वपूर्ण पद लॉटरी के जरिए

आधिकारिक आदेशों के अनुसार, अब कॉलेज प्रिंसिपल और अन्य महत्वपूर्ण पद लॉटरी के जरिए चुने जाते हैं। इसमें योग्य उम्मीदवारों के नाम मतपेटी में डालकर एक अव्यवस्थित प्रक्रिया के तहत चुने जाते हैं। इस प्रक्रिया की देखरेख विश्वविद्यालय के अधिकारी करते हैं। उदाहरण के तौर पर, हाल ही में आदेश आया कि शिक्षकों का चयन भी इसी तरह से होना चाहिए। इसका उद्देश्य पक्षपात को रोकना था, पर आलोचक कह रहे हैं कि इससे योग्यता का महत्व कम हो गया है।

अनुभव और कौशल का नजरअंदाज होना

लॉटरी का तर्क यह है कि यह पारदर्शिता बढ़ाती है। अधिकारी कहते हैं कि इससे भ्रष्टाचार, पक्षपात और राजनीतिक दखल खत्म हो सकती है। उनका दावा है कि इससे हर उम्मीदवार को बराबर मौका मिलता है। पर आलोचक मानते हैं कि यह तरीका आसान है, पर जरूरी अनुभव और कौशल को नजरअंदाज कर देता है।

इस प्रणाली की आलोचना

शैक्षिक क्षेत्र में इस प्रणाली की आलोचना भी होती है। योग्यता और अनुभव पर कम जोर पड़ने से शिक्षकों का अनुभव गौण हो जाता है। जिन उम्मीदवारों के पास प्रशासनिक क्षमता और विशेषज्ञता के कई साल हैं, वे इस व्यवस्था में पीछे रह जाते हैं। इससे नेतृत्व कमजोर हो सकता है और शिक्षण स्तर गिर सकता है।

धोखाधड़ी का शक बना रहना

साथ ही, भले ही लॉटरी को पारदर्शी माना गया हो, लेकिन इसमें धोखाधड़ी का शक बना रहता है। कोई कैसे सुनिश्चित कर सकता है कि प्रक्रिया निष्पक्ष है? अक्सर यह सवाल उठते हैं कि कहीं भेदभाव या भाई-भतीजावाद तो नहीं है। नियम और ऑडिट के बिना इसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा होता है।

विद्यालयों में अच्छा नेतृत्व होना जरूरी है। जब बड़े पद यादृच्छिक तरीके से तय होंगे, तो शिक्षा और प्रबंधन की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। इससे छात्रों की पढ़ाई और शोध दोनों पर असर पड़ सकता है। सही नेताओं की जगह सुरक्षित, अनुभवी और ईमानदार लोग ही होते हैं। यह गुण लॉटरी से नहीं मिलते।

निष्पक्षता को लेकर चिंता

इस प्रणाली का एक और बड़ा मुद्दा है राजनीतिक और सामाजिक जड़ें। कई बार यह देखा गया है कि संघीय नियमों और सामाजिक वर्गों के आधार पर प्राथमिकता दी जाती है। खासकर सरकारी नौकरी करने वालों या कुछ विशेष वर्गों को विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। इससे निष्पक्षता को लेकर चिंता और बढ़ती है।

 

मीडिया रिपोर्टिंग में इन कदमों पर नाराजगी दिखी है। शिक्षक, छात्र और शिक्षा विशेषज्ञ इस बदलाव से असंतोष जताते हैं। वे मानते हैं कि इस कदम से शिक्षा का स्तर गिरता है और पूरी व्यवस्था में भरोसा कम होता है। जनता भी इस प्रणाली को त्वरित बदलाव और बेहतर व्यवस्था मानने के बजाय उसकी खामियों को देख रही है।

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