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Manmohan Singh: मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी से सुशासन का कितना संबंध बना!

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c a priyadarshi, चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शीManmohan Singh: पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब दुनिया में नहीं हैं। मगर वो इतिहास के पन्नों में हमेशा रहेंगे। मनमोहन सिंह रोबोट की तरह अपने कामों को परवान चढ़ाते हुए एक के बाद एक तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते रहे, आर्थिक सलाहकार से लेकर वित्त सचिव, आरबीआई के गवर्नर, वित्त मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री पद तक को सुशोभित किया। उन्होंने आर्थिक उदारीकरण से लेकर मनरेगा, आरटीआई सहित कई काम कर इतिहास रचा। हालांकि पीएम रहते हुए वो कई काम नहीं कर पाए और कुछ पर ध्यान नहीं दिया। इन्हीं मुद्दों पर चिंतक, विचारक, लेखक और समाजसेवी चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी ने बेबाक टिप्पणी की है।

मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत खूबियाँ पर बात हो रही है। उनमें से कई बातें सही हैं। नेतृत्व के स्तर पर देश को व्यक्तिगत ईमानदारी की दरकार है. परंतु यह सबक लेना होगा कि मनमोहन सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी से सुशासन का कितना संबंध बना!

पढ़ाई पूरा करते ही मनमोहन सिंह को लगातार दायित्व दिए गए और उन्होंने पूरा किया। उन्हें इतना अधिक मौका मिला कि इतिहास उनकी समीक्षा निर्मम तरीके से करें तो इसमें कोई बुराई नहीं होगी।

मनमोहन सिंह को सबसे महत्वपूर्ण दायित्व पूर्व पीएम पी वी नरसिम्हा राव ने दिया। वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह बिहार आए थे और लगभग ढाई सौ लोगों के बीच एन एन सिन्हा इंस्टिट्यूट में उन्होंने भाषण दिया था। उन्होंने कहा था कि बिहार के लिए कुछ किया नहीं जा सकता, क्योंकि बिहार के पास सड़क संरचना बिजली और प्रशासनिक संरचना नहीं है या बेहद कमजोर है।

उस पर मैंने उन्हीं दिनों प्रतिक्रिया दी थी, कि तुमने ही दर्द दिया और तुम ही सजा दोगे। ( प्रचलित गाने का वाक्य तुम्हीं ने दर्द दिया तुम ही दवा दोगे। )

ये भी सच है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जो कुछ करते थे बहुत तेजी से कर रहे थे। वित्त मंत्री के रूप में बजट प्रस्ताव प्रस्तुत करने के बाद वे सीधे टीवी प्रजेंटर प्रणव रॉय के टेलीविजन कार्यक्रम में जाते थे।

विदेशी आर्थिक संस्थानों के लोग भी मनमोहन सिंह के उस प्रोग्राम में सामने आते थे और सवाल पूछते थे। जैसे बजट में नेट इकोनामिक डिफिसिट निश्चित स्तर तक नहीं लाया जा सका? मनमोहन सिंह इशारा करते थे कि पॉलिटिक्स भी बहुत महत्वपूर्ण है। इस तरह यह कहते थे कि आप अपने सवालों के संतोषजनक जवाब के लिए इंतजार कीजिए।

मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनने के लिए सोनिया गांधी जिम्मेदार है। ऐसा लगता है कि उन्हें यह एहसास था कि अगर वह प्रधानमंत्री बनेगी तब बीजेपी की नेता सुषमा स्वराज और उमा भारती नाटक खड़ा कर देंगी।

उस समय दिग्गज नेता शरद पवार और उनकी पार्टी एनसीपी मे भी विदेशी मूल के प्रधानमंत्री का सवाल उठाया था। मेरे मन में भी यह सवाल था कि कांग्रेस के केंद्र में वे केवल इसलिए क्यों होगी कि वह नेहरू-गांधी परिवार में विवाह करके आई हैं। हालाँकि इन बातों का प्रसंग आज वैसा ही नहीं है।

मनमोहन सिंह वित्त मंत्री प्रधानमंत्री के रूप में जो काम कर गए उस संदर्भ में किशन पटनायक ने यह संदेह रखा था की भारतीय नौकरशाही के पास तेजी से सुधार करने की योग्यता नहीं है। मनमोहन सिंह विश्व संस्थाओं के द्वारा प्रिसक्राइब किए गए प्रस्तावों को रख करके सुधार करवाते हैं।

गौर करें तो तो उस समय देश की अर्थव्यवस्था पर वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन और अन्य वैश्विक शक्तियों का खासा असर था। खास तौर पर वित्त मंत्री रहते हुए इन चीजों का काफी असर था।

परंतु यह भी याद रखना चाहिए कि जनवरी 1991 में मनमोहन सिंह को और पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को एक विकट समस्या का मुकाबला करना था। उस समय पेट्रोलियम पदार्थ डीजल पेट्रोल पर भारत बहुत हद तक विदेशों पर निर्भर था, और इसके पास एक बिलियन यानी 1 अरब डॉलर का ही फॉरेक्स रिजर्व था।
आज यह 650 गुना बढ़ गया है। 1991 के मूल्य पर भी यह उस समय से काफी अधिक है।

इसके साथ ही मनमोहन सिंह ने भारत की एक निराशा को समाप्त कर दिया और हम हिंदू विकास दर यानी चार प्रतिशत के विकास दर से बहुत बाहर आ गए और यह उनके बाद लगभग दो गुना हो गया। साउथ ईस्ट एशिया के देश उस समय चैंपियन थे और चीन भी चैंपियन था। 10% का विकास दर का पैमाना बन रहा था। मनमोहन सिंह के प्रयास से भारत वर्ष 8% के विकास दर को छूने लगा।

साथ ही मनमोहन सिंह ने डिसइनवेस्टमेंट यानी सरकारी संस्थाओं को प्राइवेट हाथों में बेचने की शुरुआत की। नीति बहुत स्पष्ट थी कि सरकार का काम व्यवसाय करना नहीं है।

मनमोहन सिंह पर यह उत्तरदायित्व जाता है कि जो संस्थान मुनाफे में थे और जिन संस्थाओं को चलाने की वज़ह से भारत में श्रमिकों की स्थिति में बहुत सुधार आया था उनका डिशइन्वेस्टमेंट नहीं हो।

भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर में क्या अच्छा हुआ और क्या बहुत बुरा हुआ। एम्स (AIIMS), आईआईटी (IIT), सेल (SAIL) कंपनियों से देश आगे बढ़ा।

दूसरी ओर बुराइयों की भी लिस्ट बहुत बड़ी है।
सबसे संतुलित ढंग से अगर नेहरू और इंदिरा कला के योगदान को समझना है तो, इसके लिए जयप्रकाश नारायण (जेपी) की एक रचना है “आमने-सामने”, जो मूलत: “फेस टू फेस” नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी।

1974 आलोचना में यह भी कहा जाता है कि  लिबरलाइजेशन की कथित धारा की शुरुआत वहीं से हुई।

मैं इस तरह देखता हूं  कि पाकिस्तान में एक तरफ से, रूस में दूसरे तरह से और भारत में तीसरी तरफ से राज्यवाद के विरोध में (लाइसेंस कोटा परमिट राज के विरोध में ) प्रतिवाद हुआ था। आज 1974 में भी इसके खिलाफ आंदोलन था। 1974 में पिकेटिंग तो शराब भट्ठियों पर किया गया, परंतु लाइसेंस कोटा परमिट राज के विरोध में भी 1974 से आवाज़ें सुनाई पड़ने लगी थीं।

नई आर्थिक नीति के 10 वर्ष बीतने के बाद उसकी खूबियों और बुराइयों को लेकर मैं (सी ए चक्रवर्ती) एक छोटे से टीम में लगातार संवाद में था। हम लोग देख रहे थे कि ऐसी राज्य सरकारें हैं, जो कांग्रेस की नई आर्थिक नीति के विरोध में भूमिका निभा रही है। वे राज्य सरकारें भी मनमोहन सिंह के सुधारों को अपनाने के लिए बेचैन थीं। इतना ही नहीं CPM को भी खगोलीकरण और उदारीकरण का रास्ता हाथ लग जाए इसके लिए पश्चिम बंगाल सरकार भी बेचैन थी।

प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के कार्यकाल के मनरेगा प्रस्तावों और सूचना का अधिकार, वन अधिकार आदि की चर्चा आज भी होती है। इसके साथ यदि ट्रेड यूनियन के नियमन में संशोधन, खेती की ऊपेक्षा आदि को जोड़ दिया जाए तो मनमोहन सिंह के समय के आर्थिक विकास के साथ बढ़ रही भीषण बेरोजगारी और भीषण गैर बराबरी का मूल्यांकन किया जा सकता है।

मनमोहन सिंह जब मनरेगा लेकर आ रहे थे, तब अर्थशास्त्रियों में स्थापित लोग यह कह रहे थे कि इससे सरकारी पैसा निकल जाएगा और लोगों तक नहीं पहुंचेगा। हालांकि राजस्थान में इसकी पूरी संभावना थी कि मनरेगा का पैसा नीचे के स्तर तक पहुंचेगा।

परंतु बहुत ही विसंगति और बहुत ज्यादा बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के साथ यह प्रोग्राम चला। इस तरह कह सकते हैं कि मनमोहन सिंह अच्छे प्रशासक नहीं थे। शुरू में देश के कुछ जिलों में इसे लागू किया गया, परंतु इसके अनुभव का मूल्यांकन करके आगे इस योजना को फुल प्रूफ बनाने के लिए काम नहीं किया गया।

ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना से स्टेट का पैसा निकला और यह पंचायत स्तर तक कुछ हाथों में आकर सिमट गया और इससे हर जगह गरीबों का एनमी वर्ग यानी शत्रु वर्ग तैयार होकर रहा।

ग्राम पंचायत आमतौर पर स्वायत्त शासन या लोगों का खुद का शासन बनने की जगह पर राज्य एजेंसी की मदद से  भ्रष्ट राज्यशक्ति का एक्सटेंडेड हाथ मतलब बढ़ा हुआ हाथ बन गया।

मनमोहन सिंह ने जितने सुधार किया उसका लाभ तो देश को जरूर मिला। बिहार से एक करोड़ मजदूर मौसमी पलायन करते हैं और उन्हें उन इलाकों में काम मिलता है, जहां नई आर्थिक नीति को आगे बढ़कर अपनाया गया था। मनमोहन सिंह के समय बिहार में नीतीश कुमार का शासन काल रहा। जब वे वित्त मंत्री थे तब लालू प्रसाद और उनके लोगों का शासन काल था।

नीतीश कुमार ने बिहार में भ्रष्टाचार और भारी भ्रष्टाचार के साथ राज्य मिशनरी को बहुत मज़बूत कर दिया और राज्य के कार्यक्रम में इस गरीब राज्य के जनजीवन पर असर डाला। बिहार 13% के आर्थिक विकास के स्तर पर आ गया।

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मनमोहन सिंह ने बिहार के प्रति कैसी कृपा दृष्टि अपनाई थी? ये भी गज़ब है। एक बात बहुत स्पष्ट है कि बिहार को सड़कों का बहुत अधिक स्रोत मिला और सन 2000 और सन 2011 के बीच में मैं खुद एक अध्ययन के संचालन के लिए बिहार के 24 क्षेत्रों में गया था। इनमें झारखंड के 8 क्षेत्र भी थे। ग्रामीण सड़कों की स्थिति में बहुत बड़ा अंतर आ गया था और इससे बिहार, लालू के समय के गतिरोध से बाहर आ गया था।

दूसरी चीज हुई बिजली संरचना की। बिहार के कोसी क्षेत्र में सन 2008 के बाढ़ के बाद मनमोहन सिंह ने शीघ्र ही इसे राष्ट्रीय आपदा बताया और उन्होंने 1000 करोड़ रुपए की सहायता शीघ्र दे दी। परंतु बिहार ने बाद में हजारों करोड़ रुपए से कोसी क्षेत्र के तीन लाख मकान के पूर्ण निर्माण का प्रस्ताव दिया और कोसी क्षेत्र के पुल पुलिया सड़क की योजना दी। साथ-साथ खेतों से शिल्ट (Shilt) बालू हटाने की जो योजना दी। इस पर मनमोहन सिंह की सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। उस समय सीएम नीतीश बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला रहे थे।

हम यह कह सकते हैं कि मनमोहन सिंह के समय उनके वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री रहते हुए जितने बजट आए उनमें खेती के बारे में कोई दृष्टिकोण नहीं था। न्यूनतम समर्थन मूल्य MSP इंदिरा गांधी के कार्यकाल में आया था और मूल्य को बढ़ाने का काम सबसे पहले गैर कांग्रेसी सरकार खासकर एचडी देवगौड़ा की सरकार ने किया था। जिस दिन उनको इस्तीफा देना था, उसी दिन उनके 5 निर्णय में एक था एमएसपी की दर में भारी वृद्धि।

भारतवर्ष में साल 2014 के पहले तक, किसी भी गैर कांग्रेसी सरकार ने सरकार नियंत्रित सेवाओं या वस्तुओं की कीमत को नियंत्रित रखकर महंगाई पर काफी लगाम रखा था। गैर कांग्रेसी सरकारों ने इस खूबी को एकदम से खत्म कर दिया था।

कीमतों में वृद्धि के लिए मनमोहन सिंह की सरकार बहुत अधिक जिम्मेदार सरकार है। इस बात को मनमोहन सिंह के कार्यकाल के आंकड़े चीख-चीखकर कह रहे हैं।

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में नौकरियों में से छांटने यानी नौकरियों में से निकल बाहर कर दिए जाने की खबर आई थी। परंतु मध्यम वर्ग को बहुत अधिक नए मौके मिले और सबसे ज्यादा तो आईटी सेक्टर में मिला। आईटी सेक्टर के विकास दर के लिए सबसे ज्यादा श्रेय तो पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जाता है।

बैंकिंग में भी नौकरियों की गुंजाइश रही। अभी सरकारी क्षेत्र का बैंक स्टेट बैंक इतना बड़ा है , कि उसके बाद के दो सरकारी क्षेत्र के बैंक और तीसरा निजी क्षेत्र का बैंक तीनों मिलकर भी स्टेट बैंक के बराबर नहीं है। बैंकों के विस्तार और पढ़े-लिखे लड़कों की नौकरी जारी रहा।

विनिर्माण या मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को जो नया बूस्टर मिला मनमोहन सिंह के कार्य में बहुत अधिक विकास तब तक नहीं हुआ था। परंतु सेवा क्षेत्र का बहुत विकास हुआ और कृषि क्षेत्र एकदम किनारे लगा दिया गया। बावजूद इसके की कृषि क्षेत्र में जगजीवन राम, लाल बहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई के के समय में काफी कुछ किया गया था.
खुद कृषि क्षेत्र में देश को खाद्य आत्मनिर्भरता की स्थिति में लाया.

मनमोहन सिंह के सुधारों का ज्यादा लाभ पूंजीवादी संगठित संस्थानों को ही मिला और वह मनुष्य केंद्रित उदारीकरण की जगह पर पूंजी केंद्रित उदारीकरण के चैंपियन बने.

बता दें कि इस देश में नेहरू ने दूसरी पंचवर्षीय योजना से औद्योगिक विकास की बुनियाद डाली थी. परंतु साथ-साथ कृषि विकास के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट आए। राष्ट्रव्यापी अकाल और पर्यावरण के विनाश की वजह से खेती क्षेत्र में विकास, सीमित इलाके में ही था परंतु बाद में ऐसा नहीं रहा। हरित क्रांति एक इलाके में सीमित था। परंतु कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन का भी योगदान है। साथ साथ किसान नेता एस एम जोशी का भी योगदान को नकारा नहीं जा सकता है।

दक्षिण भारत और ईस्टर्न इंडिया सोया हुआ बाघ था, जो जागने लगा। साल 2021 में पूसा में सरकार के किसान सम्मेलन के अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 100 तरह के कृषि सहयोगात्मक कार्यक्रमों की घोषणा की।। यह कहा कि 2023 तक किसने की आमदनी दोगुनी बढ़ा दी जाएगी। मेरे ख्याल से आमदनी का आकलन पुराने स्थिर मूल्य पर ही किया जाना चाहिए।

इस सम्मेलन की एक-एक बात पर ध्यान देते हुए मैं बहुत जिम्मेदारी के साथ इस नतीजे पर आया था कि मनमोहन सिंह के लंबे कार्यकाल से शुरू होकर नरेंद्र मोदी तक कृषि क्षेत्र को सहयोग देने की कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं थी।

यही वजह है की कोसी पर बाँध बनाने की योजना को आर्थिक कारण से कटौती का सामना करना पड़ा था. नेहरू काल में कोसी पर खर्च न कर भाखड़ा नांगल को प्राथमिकता दी गई।

ऐसा समझा जाना चाहिए था कि मनमोहन सिंह के कार्यकाल में बिहार के नदी जल संसाधन और इसमें छुपी हुई बहुत बड़ी संभावनाओं की तरफ ध्यान जाएगा। याद करना होगा कि मनमोहन सिंह के शासनकाल में देश के विकास का आधार इसके पीछे गए क्षेत्र में अंतर निहित संभावना पर बनाया गया.

भारत को यदि विकसित होना है तो यह विकास के अपने अब तक के परंपरागत तरीके से बहुत थोड़ी दूर तक ही चल सकेगा.. आप याद करिए, मनमोहन सिंह के शासनकाल का का कोई ऐसा काम!

बिहार में अब पश्चिम चंपारण को छोड़कर सामंती भूमि घराने समाप्त हो चुके हैं। इस तरह अब पूरे देश में खेती का विकास और किसान की तरक्की अंतर्निहित संबंध है.

सरकार यदि कृषि विकास पर महत्वाकांक्षी हो जाए, तो उत्पादन और वितरण दोनों साथ साथ चल सकता है। कृषि और परंपरागत प्राकृतिक संसाधनों के साथ औद्योगिकरण के संबंध को बनाना है तो इस दायित्व को पूंजीवादी मॉडल पर नहीं छोड़ा जा सकता.

ज्यादातर किसान उत्पादक और बहुत बड़े उपभोक्ता हैं। खेती क्षेत्र में यह संभावना बहुत कम है की उत्पादन के भारी पहाड़ बन जाए और उनके वितरण में विसंगति की समस्या बनी रहे। खेती के उत्पादकता के साथ प्रति व्यक्ति आय का ऐसा संबंध होता है जिसमें विषमता या गैर बराबरी अन्य क्षेत्रों के मुकाबले काफी कम होती है।

मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री के रूप में, एक वित्त मंत्री के रूप में और प्रधानमंत्री के रूप में गरीबी, गैर बराबरी और गांव के दोषी थे।

उन्होंने भारतवर्ष को मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर के गतिरोध से बाहर निकाला था और अर्थव्यवस्था में विकास को पटरी पर लाया था। विकास से नीचे तक ट्रिकल डाउन तरीके से, लोगों का जीवन सुधर जाएगा, यह बहुत सारे क्षेत्र में अभी तक दिखता है। ग्रामीण विकास भी दिखता है। मनमोहन सिंह को विकास पुरुष माना जाना उचित है।

मनमोहन सिंह अपने दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार बेलगाम हो गया था. महंगाई भी काफी बढ़ी थी. वो इसे रोक नहीं पाए। जब आप पद पर होते हैं तो आपकी व्यक्तिगत ईमानदारी तब खासतौर पर महत्व रखती है जब आप इसकी बदौलत अपनी प्रशासनिक और शासन करने की क्षमता को भी उसे तरह से ढाल दें।

मनमोहन सिंह को याद रखते हुए आज चिंता यह करनी चाहिए कि यदि मनमोहन सिंह एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर हो गए तो उनका दायित्व बहुत अधिक था।

इसी तरह से बिहार में एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर बने थे बिंदेश्वरी दुबे। माना जाता है कि जगन्नाथ मिश्र को चीफ मिनिस्टर दोबारा नहीं बनना था, तब कंप्रोमाइज बिंदेश्वरी दुबे से हुआ। बिंदेश्वरी दुबे को पहले जगन्नाथ मिश्रा का आदमी कहा गया, परंतु ट्रेड यूनियन लीडर रहने के बैकग्राउंड की वजह से बिंदेश्वरी दुबे ने भूमि सुधार के बकाया काम को पूरा करने के मामले में और जितने तरह के डेलिगेशन उनसे मिले उनसे बात करके काम करने के मामले में कई बुनियादी मसलों पर दुबे की सरकार अंतिम थी ।

मनमोहन सिंह की आर्थिक ट्रेनिंग जिस तरह से हुई थी उसमें से एक तरफ एक अंधेरा कोना निर्मित करता था। मनमोहन सिंह के कामों की बुनियाद पर, भारत वर्ष में कोई अच्छी सरकार आती तो मनमोहन सिंह के दौर के सुधारों का प्रसार हो सकता था. आर्थिक उदारीकरण, विषमता और पूंजीवाद के रहस्य आम लोगों को स्वायत्त मिले, यह कल्पना मात्र है.

उदारीकरण के रास्ते पर हम कई कदम चल चुके हैं. इसके परिणाम स्वरूप आज सरकार के पास पहले के मुकाबले काफी पैसा और भारी शक्ति है।

सरकार कितने कर्जे में है यह विश्लेषण ज़रूर करना चाहिए। परंतु मजबूत राज्यवाद के बल पर आर्थिक उदारता या उदारीकरण जैसे मिश्रित तरीके के हम सभी विक्टिम है।

मनमोहन सिंह ने अगली सरकार के लिए पैसा छोड़ा था और वह यदि भ्रष्टाचार के भारी दाग से घिरे नहीं होते, तो मनमोहन सिंह के चुनाव हारने के आज जितने आत्मघाती परिणाम आ रहे हैं, मैं आशा करता हूं कि उसे हम बच जाते। उनकी खूबियों का पूरा तरह समर्थन करते हुए भी दिए के ताले के अंधेरे को भी समझना चाहिए।

  • चक्रवर्ती अशोक प्रियदर्शी, चिंतक, विचारक, लेखक और समाजसेवी

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