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Sawal Media Se: गोद बनाम गप्पी मीडिया

मौजूदा चुनावी दौर में मीडिया और ज़मीनी हक़ीक़त का सवाल

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लोकतन्त्र में ज़रूरी है कि मीडिया लोगों के बीच जाए, और लोगों से सम्वाद करे। ख़ासकर आम चुनाव के इस बेहद महत्वपूर्ण दौर में इस बात की ज़रूरत सबसे ज़्यादा होती है कि मीडिया सच्चाई सामने लेकर आए; वह मतदाता की आँख बनकर उसे ज़मीनी हक़ीक़त से रूबरू कराए। उसे एहसास कराए कि सत्ता की राजनीतिक होड़ में जुटे दलों के प्रचार के शोर में आम जनता के ज़रूरी मुद्दे मौजूद हैं या नहीं, और उन ज़रूरी मुद्दों की कितनी बात हो रही है, कितनी गम्भीरता के साथ हो रही है; या केवल हवा-हवाई अन्दाज़ में उन्हें केवल निपटा देनेभर का काम हो रहा है!

इस बारे में विस्तार के साथ तथ्य की फाइल पेश कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार विश्लेषण अशोक दद्दा…

यह देखना यक़ीनन चिन्ताजनक है कि दुनिया के इस ‘सबसे बड़े लोकतन्त्र’ में पूरा आम चुनाव बिना ग्राउण्ड रिपोर्टिंग के निकल जाए, या ग्राउण्ड रिपोर्टिंग के नाम पर कुछ ईवेंट्स की तमाशाई नुमाइश हो, जिसमें आमजन के असली मुद्दे, समस्याएँ करीब-करीब सिरे से नदारद हों, और केवल सतही-उथली बातों के ज़रिए मतदाता को भटकाने की भरपूर कोशिश चल रही हो।

Sawal Media Se: संसाधनों से लैस मीडिया का रवैया बहुत अजीब है। ‘गोदी-मीडिया’ के नाम से पहचाने जानेवाले ऐसे तमाम चैनल ‘लोकतन्त्र के चौथे खम्भे’ की ज़िम्मेदार और जनपक्षधर, निष्पक्ष भूमिका से पहले ही नाता तोड़ चुके हैं। वे मौजूदा सत्तापक्ष के प्रचार – प्लेटफ़ॉर्म की भूमिका में ही बदल चुके हैं। वे सत्तापक्ष के नेताओं और सभाओं की ऐसी रिपोर्टिंग करते दिखेंगे, जिसमें केवल नेता के प्रभामण्डल, और सामने जुटी या जुटाई गई भीड़ की भक्ति, और मंच से उठाई गई वाहियात बातों पर जयकारा लगाने के मौकों पर ही कैमरा फ़ोकस करता दिखेगा ! इस मौके पर चुनाव आयोग द्वारा (नाममात्र के लिए) लागू आचार-संहिता का कितना पालन हो रहा है – बोलना तो दूर, इस पर सोचना भी उनके लिए मुज़िर (नुकसानदायक) है!

दिखावे के लिए जनता के बीच जाकर उनकी प्रतिक्रिया लेने की कोशिश इन चैनलों के पूर्वनियोजित ईवेण्ट-मैनेजमेण्ट के कर्मकाण्ड में तब्दील हो चुकी है। पब्लिक ओपीनियन के नाम पर इनके सवाल पूछने का तरीका ही ऐसा है, जिसमें रिपोर्टर मनमुताबिक जवाब निकलवाने की कोशिश करता ही नज़र आएगा।

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मनमुताबिक लाइन से अलग तरह का जवाब आने की स्थिति में इन रिपोर्टरों की बेचैनी और सवाल की लाइन बदल लेने की हड़बड़ी लाइव-रिपोर्टिंग में साफ़ नज़र आती है। इन बातों को तो आप रोज़-ब-रोज़ झेल ही रहे होंगे।

दूसरी तरफ़ यूट्यूब चैनल के ज़रिए जो ख़बरें मिलती हैं – उनमें कई काफ़ी स्थापित हो चुके हैं, उन्हें हज़ारों-लाखों व्यू मिलते हैं, हज़ारों-लाखों लोग उन्हें सुनते हैं – मसलन रवीश कुमार, पुण्य प्रसून बाजपेई, आशुतोष, अजीत अंजुम, अभिसार शर्मा या साक्षी जोशी आदि के यूट्यूब चैनल।

Sawal Media Se: संसाधनों की चुनौती का सामना करते हुए वैकल्पिक मीडिया के बतौर स्थापित हुए या हो रहे ऐसे यूट्यूब चैनल मुख्य तौर पर समाचार-विश्लेषण के मंच हैं। जो ख़बरें आ चुकी हैं, और उन्हें कथित ‘गोदी-मीडिया’ के ज़रिए जिस तरह परोसा जा रहा है, उसकी जाँच-परख करते हुए समाचार-विशेष के उन पक्षों को भी उजागर करने का काम ये यूट्यूब चैनल करते हैं, जिन्हें कथित ‘गोदी-मीडिया’ जानबूझकर दबा देता है। अकेले, या कुछ अतिथि-विश्लेषकों के साथ किए जानेवाले ऐसे समाचार-विश्लेषण मूलतया स्टूडियो में बैठकर ही किए जाते हैं – गम्भीर या कुछ कम गम्भीर (यक़ीनन कुछ गैर-गम्भीर भी) रिसर्च और आँकड़ों-तथ्यों के साथ। इनकी प्रस्तुतियों में अमूमन ग्राउण्ड-रिपोर्टिंग का अभाव रहता/रह सकता है, हालाँकि ये तमाम स्थापित पत्रकार अपने सम्पर्क-सूत्रों का उपयोग करते हैं, जो उन्होंने अपने प्रोफ़ेशनल कॅरियर के शुरुआती दौर में बनाए होते हैं।

इनके अलावा ‘द वायर’ और ‘न्यूज़लाण्ड्री’/’न्यूज़मिनट’ सरीखे यूट्यूब प्लेटफ़ॉर्म भी हैं, जो अपने विश्लेषण के कार्यक्रमों के अलावा ग्राउण्ड-रिपोर्टिंग को भी जोड़ने की कोशिश करते हैं, ख़ासकर मौजूदा चुनावी दौर जैसे समय पर!

Sawal Media Se: ध्यान देने की बात यह है कि वैकल्पिक मीडिया की धारा के बतौर इनका विकास और इनकी पहचान इस बात का प्रमाण तो है ही, कि लोग ‘गोदी-मीडिया’ के केवल-और-केवल सत्तापक्षीय कार्यक्रमों और एकतरफ़ा रिपोर्टिंग की उबाऊ एकरसता (Tedious Monotony) से अलग हटकर कुछ गम्भीर मीडियाकर्म की चाहत रखते हैं।

अन्ततः इस ज़रूरत से इन्कार नहीं किया जा सकता, कि हमारे लोकतन्त्र की सेहत को दुरुस्त रखने के लिए ऐसे वैकल्पिक मीडिया की ज़रूरत है, जो वस्तुपरक (objective) रिपोर्टिंग, तथ्यपरक विश्लेषण, और बेबाक निष्पक्षता के साथ निडर पत्रकारिता को अन्जाम दे सके; और जो हर पल, हर क्षण आमजन के वास्तविक मुद्दों की आवाज़ बन सके !!

( अशोक जी, मूलत: सोशल एक्टिविस्ट हैं। साथ ही वर्षों तक ‘जनमुक्ति विमर्श’ पत्रिका का संपादन किया है। )

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