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One Nation One Election: केंद्रीय कैबिनेट ने वन नेशन वन इलेक्शन के प्रस्ताव पर मुहर लगाई है, क्योंकि एक साथ चुनाव के लिए ‘राजा’ को मूड हो गया!
ऐेसे में खर्च ही बचाना है तो अगले बीस-तीस वर्ष तक कोई चुनाव ही न हो तो क्या हर्ज है?
सुनने और सोचने में जितना भी अच्छा लगै, लेकिन लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने का विचार/सुझाव पूरी तरह अव्यावहारिक और अलोकतांत्रिक है. यदि ऐसा किया गया, तो इसका मतलब यह होगा कि किसी राज्य की गठबंधन सरकार के किसी घटक के अलग हो जाने या एक दल का बहुमत होने पर भी सत्तारूढ़ दल में टूट हो जाने पर सरकार अल्पमत में आ गयी, तब भी या तो वहां अगले चुनाव तक अल्पमत सरकार शासन करती रहेगी; या फिर वहां केंद्रीय शासन लगा दिया जायेगा. क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल होगा? और यदि केंद्र सरकार ही अल्पमत में आ जाये तो? केंद्र में राष्ट्रपति शासन का कोई प्रावधान तो है नहीं. तो क्या अल्पमत सरकार ही अगले चुनाव तक कायम रहेगी? किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करते समय विपक्ष को ‘वैकल्पिक सरकार कैसे बनेगी’, यह बताना होगा, जैसा तर्क भी बेतुका ही है.
मान लीजिये, विपक्षी दलों में ऐसी एकता नहीं है कि वे मिलकर सरकार बना सकें, तब भी क्या एक अल्पमत सरकार का शासन चलता रहेगा? संसद में बिना बहुमत के वह सरकार काम कैसे करेगी? क्या यह प्रावधान कर दिया जायेगा कि सरकार को कोई नया कानून बनाने, बजट पारित कराने के लिए बहुमत की ज़रूरत ही नहीं है? फिर लोकतंत्र की अहम् शर्त ‘बहुमत का शासन’ का क्या होगा?
इसके पक्ष मेँ एक सबसे मजबूत तर्क यह दिया जाता है कि बार बार चुनाव होने से विकास बाधित होता है और लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने से देश तरक्की करता है. भाजपा भी यही कहती है- तो उसे यह भी मानना चाहिए कि आजादी के बाद 20 वर्षों तक देश ने बहुत तरक्की की. इसलिए कि तब पूरे देश में कांग्रेस का एकछत्र शासन था, हर जगह ‘डबल इंजन’ सरकार थी. बीच अवधि में विधानसभा भंग होने, मिलीजुली सरकार बनने, मध्यावधि चुनाव का खेल तो 1967 में शुरू हुआ. तो भाजपा को कहना चाहिए कि देखिये- एक देश, एक चुनाव होता था, तो देश ने कितनी प्रगति की; और उसके बाद देश कैसे पीछे चला गया. बार-बार चुनाव होने से विकास की गति यदि रुकती है तो सरकार ही दावा करती है कि पिछले 10 वर्षों से देश लगातार आगे बढ़ रहा है- जीडीपी बढ़ गया, हमारी इकोनॉमी इतने लाख करोड़ की हो गयी. कि हम विश्व गुरु बनने ही वाले हैं! तो क्या फर्क पड़ा एक साथ चुनाव नहीं होने से, विकास में कहां बाधा आयी?
वैसे भी क्या संविधान निर्माताओं को यह अनुमान नहीं था कि विभिन्न कारणों से कोई सरकार अल्पमत में आ सकती है, विधानसभा या संसद का कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग करने, फिर से चुनाव की स्थिति आ सकती है? था, तभी तो विधानसभा को भंग करने के प्रावधान किये गये! फिर चुनाव होने तक सम्बद्ध राज्य में केंद्रीय शासन लगाने का. हाँ, देश बिना सरकार के नहीं चल सकती तो संसद भंग होने की स्थिति में पिछली सरकार, जो भले ही अल्पमत में आ गयी हो, चुनाव होने तक केंद्र मेँ कार्यवाहक सरकार के रूप में काम करती रहती है. मगर किसी राज्य को किसी सनक के कारण दो-तीन साल तक बिना निर्वाचित सरकार के, केंद्र के अधीन रख देना, या अल्पमत सरकार को जारी रखना लोकतंत्र का मजाक ही होगा.
बीते 15 अगस्त को लाल किले के अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ का जिक्र करते हुए कहा था, इसके लिए देश को आगे आना होगा. कैसे? इसके लिए आपने क्या पहल की? उसी भाषण में उनके यह कहने कि ‘सभी राजनीतिक दलों ने अपने विचार रखे हैं’ का क्या अर्थ हुआ? कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, सीपीएम और बसपा समेत 15 पार्टियां, यानी सभी प्रमुख विपक्षी दल विरोध में हैं; जाहिर है, सत्तारूढ़ गँठबंधन एनडीए में शामिल दल पक्ष में हैं. मगर विपक्ष की अनदेखी कर इतना बड़ा फैसला करना उचित होगा?
एक जिज्ञासा यह भी है कि जिस समिति ने यह सुझाव दिया है, उसमें कौन लोग थे? विपक्ष के कितने और निर्विवाद रूप से निष्पक्ष और संविधान के जानकार कितने?
बताया गया कि समिति ने 62 राजनीतिक दलों से संपर्क कर उनसे राय ली थी. सूचना है कि इन दलों में से 32 ने एक देश, एक चुनाव का समर्थन किया था. 15 पार्टियां इसका विरोध कर रही थी. 15 पार्टियां ने कोई जवाब नहीं दिया था. 15 ने विरोध किया, 15 ने जवाब नहीं दिया, तो समर्थन करनेवाले 32 दल कौन हैं? उनके कितने सांसद हैं? पिछले संसदीय चुनाव में उनको कुल कितने प्रतिशत मत मिले? एक या दो सांसदों वाले दलों को गिनकर 32 बता दिया? यही है देश को साथ और भरोसे मेँ लेकर चलने का तरीका? संसदीय चुनाव में झटका लगने, ‘चार सौ पार’ की हवा निकलने और ‘मोदी की गारंटी’ कामयाब नहीं होने के बाद भी मोदी जी यह दिखाना चाह रहे हैं कि कुछ नहीं बदला है! एक साथ चुनाव को कैबिनेट की मंजूरी का एक कारण यह भी लगता है!
विधानसभा और संसद पांच वर्ष के लिए गठित होती है. यदि सरकार बहुमत खो दे और वैकल्पिक सरकार बनने की सूरत न हो, तब चुनाव कराये जाते हैं- विधानसभा भंग होने के अधिकतम छह माह के अंदर. अब आप उसे बढ़ा कर दो से तीन वर्ष कर देंगे! उतनी अवधि तक विधानसभा मृत/ स्थगित रहेगी, इसलिए कि राजा को मूड हो गया! जैसे नोटबंदी करने का हो गया था! वैसे यह महज मूड की बात नहीं है. इस जमात का यह सोच/ एजेंडा पुराना है. जनसंघ के जमाने से इनका एक नारा रहा है- ‘एक देश, एक प्रधान, एक निशान.’ ये उसका एक्सटेंशन कर रहे हैं- एक धर्म, एक संगठन, एक नेता. अब- एक देश, एक चुनाव. इनके पास अभी एक ऐसा नेता है, जिसके रहते, इनको यकीन है कि कुछ भी मुमकिन है! हालांकि मेरी समझ से यह सुझाव संविधान में निहित भावना और ढांचे के खिलाफ है, जिसे संघीय व्यवस्था कहते हैं. मगर इनको मजबूत केंद्र मजबूत चाहिए. इसलिए पिछले 10 वर्षों में राज्यों के अधिकार कम से कम करने का प्रयास चलता रहा. आर्थिक मामलों में बहुत हद तक केंद्र का एकाधिकार पहले से रहा है, जीएसटी लागू होने के बाद तो राज्य याचक बन गये हैं.
वैसे इस जल्दबाजी का एक और कारण हो सकता है. भाजपा को हमेशा से- जनसंघ के जमाने से- संसदीय लोकतंत्र की जगह राष्ट्रपति प्रणाली (अमेरिका वाली) अच्छी लगती है. वह संसदीय चुनाव को भी उसी तरह दो व्यक्तियों के मुकाबले के रूप में पेश करने का प्रयास करती है. इसलिए कि उनको लगता है कि हमारे पास एक कद्दावर नेता है- कभी वाजपेयी थे आज मोदी हैं- विपक्ष के पास उसके मुकाबले का कोई है नहीं, तो पार्टी, विचार, घोषणापत्र सब किनारे करो और दो के बीच में मुकाबला करो. आपके पास कौन है मोदी के मुकाबले? इसके साथ एक बात यह भी है कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं. आम धारणा है, जो सच भी है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव अगर एक साथ हों तो देश के केंद्रीय के मुद्दे हावी होते हैं और क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाते हैं. लोकसभा चुनाव से प्रधानमंत्री चुना जाता है, कई बार ऐसा देखा गया है कि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव में भाजपा अच्छा नहीं कर पायी, लोकसभा चुनाव में उसने बेहतर किया. राज्य में तो कोई जीते, लेकिन केंद्र में तो मोदी चाहिए. मतलब मोदी की कथित लोकप्रियता का फैक्टर उसके पक्ष में जाता है, हालांकि यह सभी राज्यों में काम नहीं आता है. फिर भी एक साथ चुनाव में लाभ की उम्मीद दिख सकती है. इन कारणों से भी भाजपा को एक साथ चुनाव फायदेमंद लग सकता है.
देश में राजनीतिक सुधार की जरूरत तो है ही, चुनावी सुधार की भी. लेकिन शायद किसी दल को इसकी जरूरत महसूस नहीं होती! भाजपा को तो एकदम नहीं. सफल लोकतंत्र के लिए जरूरी है निष्पक्ष चुनाव और इसके लिए जरूरी है निष्पक्ष चुनाव आयोग. क्या हम कह सकते हैं कि वर्तमान चुनाव आयोग निष्पक्ष है? तो चुनाव आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया और पारदर्शी नहीं होनी चाहिए? क्या सरकार की मर्जी का ही चुनाव आयुक्त बने, विपक्ष की उसमें कोई भूमिका नहीं हो?
मौजूदा चुनाव प्रणाली में 30-35-40 पर्सेंट वोट लेकर के सरकार बन जाती है कैंडिडेट जीत जाता है. मतलब भले ही 60% लोगों ने समर्थन नहीं किया, कोई सांसद/विधायक बन सकते हैं, सरकार बन जाती है! और उसे कहा जाता है प्रचंड जनादेश! क्या इस पर विचार नहीं करना चाहिए कि जितने फीसदी वोट जिस दल को मिले, उसी अनुपात में संसद या विधानसभा में सीट मिले? मगर इस पर कोई गंभीरता से विचार करने के लिए तैयार नहीं है!
यहां तो एक ही चुनाव सात चरणों में कराए जा रहे हैं। चुनाव में समय और शक्ति बचे और लोग चुनाव करना या ना करना ही विषय बना लें, तो जनतंत्र कैसे रहेगा!
ऊंचे प्रशासनिक पदों पर, ज्यूडिशरी में कार्यरत लोग रिटायर होते ही या रिटायरमेंट के पहले इस्तीफा देकर पार्टी ज्वॉइन करते हैं, चुनाव लड़ते हैं, एमपी बन जाते हैं! अभी हाईकोर्ट के एक जज ने इस्तीफा दिया और वह एमपी बन गये. क्या इस पर गंभीरता से नहीं सोचना चाहिए ऐसे जज, जिसका एक पार्टी एक विचारधारा की तरफ झुकाव है, वह जज रहते हुए कितना निष्पक्ष फैसला देता होगा, खास कर तब जब मामला राजनीतिक चरित्र का हो? क्या इस पर रोक लगाने की जरूरत नहीं है कि रिटायरमेंट के बाद एक निश्चित समय सीमा तक कोई जज, कोई प्रशासनिक अधिकारी कोई पार्टी ज्वॉइन नहीं करे, चुनाव नहीं लड़े? सभी पार्टियां यह काम करती हैं. फिलहाल भाजपा सबसे बड़ी पार्टी है तो वह सबसे ज्यादा कर रही है.
हमारे चुनावी कानून में कोई व्यक्ति पर अधिक से अधिक कितनी सीटों पर चुनाव लड़ सकता है, इसका कोई नियम नहीं है. मोदी जी दो जगह से लड़े. अभी राहुल गांधी लड़े. दोनों जगह जीत गये, एक जगह से इस्तीफा दे दिया. क्या उस खाली सीट पर दोबारा होने वाले चुनाव का खर्च उस व्यक्ति या दल से वसूला नहीं जाना चाहिए? यह भी विचारणीय है कि किसी को एक से अधिक जगह से लड़ने का मौका मिलना चाहिए या नहीं?
दल-बदल विरोधी कानून लगभग बेकार हो गया है. चुनाव संपन्न होते ही विधायकों के बिकने की खबर आने लगती है, सच या झूठ. यह मतदाताओं से छल नहीं है? क्या दल- बदल पर कारगर रोक लगाने की जरूरत नहीं है?
विपक्षी दल भी यदि सिर्फ इस कारण इस प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं कि इससे भाजपा को लाभ हो जायेगा, यह विरोध का समुचित आधार नहीं है. इसके विरोध में ठोस तर्क होना चाहिए. भाजपा को तो ज़रूर यह लालच है कि एक साथ एक चुनाव में उसके पास एक केंद्रीय नेता है, जिसकी देशव्यापी लोकप्रियता है इसका उसको लाभ मिलेगा.
एक साथ चुनाव तो दूर की बात है, यहां तो एक राज्य में भी पांच से सात चरणों में मतदान कराये जा रहे हैं! मूलतः सत्तारूढ़ दल की सहूलियत के लिए. जिनको याद नहीं हो, उनके लिए- 1977 में लोकसभा का चुनाव तीन चरणों में- 16, 18 और 20 मार्च को संपन्न हो गया था. 20 को मतों की गिनती शुरू हो गयी थी और शाम तक नतीजे आने लगे थे. ध्यान रहे, तब ईवीएम नहीं आया था. उसके बाद यातायात की सुविधा बढ़ी है, सुरक्षा प्रबंध बेहतर हुआ है और मशीन से वोटिंग होने लगी है, तब भी चुनावी प्रक्रिया लंबी होती जा रही है. अभी जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में चुनाव हो रहे हैं. अभी मौका था कि महाराष्ट्र और झारखंड में भी चुनाव करा दिये जाते. पर नहीं कराये गये, इसका कोई कारण बताया गया?
लोकतंत्र के इस महायज्ञ पर होने वाले खर्च को फिजूलखर्ची तो वही बता सकता है, जिसे लोकतंत्र ही फिजूल लगता हो. कोई चार साल पहले नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने भारत में ‘टू मच डेमोक्रेसी’ (ज़रूरत से ज्यादा लोकतंत्र) होने की बात कही थी, वह असल में इस जमात की भावना का इज़हार कर रहे थे.
इस ‘फिजूलखर्ची’ से बचने का सबसे अच्छा उपाय तो यह होगा कि अगले बीस-तीस वर्ष तक कोई चुनाव ही न हो! जनता ने महामानव को प्रचंड जनदेश दे ही दिया है, और वे अगले एक हजार वर्ष के विकास का खाका भी तैयार कर चुके हैं! चंद देशद्रोही टाइप आलोचक क्या कहते हैं, इससे क्या फर्क पड़ता है. एक और तरीका है कि तमाम राज्यों मे विधानसभा का अस्तित्व ही न रहे! विधानसभा चुनाव का झंझट ही खत्म!
वैसे मौजूदा संसद के अंकगणित को देखते हुए तो यह शिगूफा भी लगता है! अन्य जरूरी मुद्दों को छोड़ कर लोग कुछ दिन इसी पर बहस में उलझे रहें.
- श्रीनिवास, वरिष्ठ पत्रकार