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Jagdeep Dhankhar resignation: भाजपा की साजिश और इस्तीफे का पर्दाफाश
भारत की राजनीति में नए मोड़ आते रहते हैं, खासकर जब सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच खेला हुई। खेल समाप्त होता है। इसी क्रम में, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की कहानी ने पूरे देश का ध्यान खींचा है। यह कहानी उस साजिश और कुश्ती का उदाहरण है, जिसमें राजनीति की शक्ति और धोखाधड़ी दोनों सामने आते हैं। इस लेख में हम विश्लेषण करेंगे कि आखिर क्या वजहें थीं जिनके चलते धनखड़ को अचानक अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और यह सब कैसे हुआ।
Jagdeep Dhankhar resignation और उसकी वजहें
कुछ दिनों पहले ही, धनखड़ का बिना पूर्व सूचना दिए रातभर राष्ट्रपति भवन पहुंचना चर्चा का विषय बन गया। उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा दिया, लेकिन खबरें बताती हैं कि असल में वह राजनीतिक दबावों के चलते यह कदम लेने को मजबूर हुए। मीडिया रिपोर्ट्स, विशेष रूप से NDTV की रिपोर्ट, इस पूरे प्रकरण का विस्तार से विश्लेषण कर रही हैं, जिसमें लिखा है कि सात गलतियों ने उनके पद को खतरे में डाल दिया। यह रिपोर्ट इन घटनाओं का अंदरूनी सच खोलती है, और बताती है कि किस तरह से सरकार ने अपने फायदे के लिए खेल खेला।
राजनीतिक असमानताएँ और आंतरिक विवाद
इस मामले में सरकार और विपक्ष के रुख बिल्कुल अलग हैं। पीएम मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा की भूमिका इस घटनाक्रम में बहुत महत्वपूर्ण रही। सरकार ने पहले कहीं यह दिखाने की कोशिश की कि धनखड़ एक ईमानदार और कड़े पदाधिकारी हैं, लेकिन उनकी अचानक बदली हुई स्थिति ने सब कुछ उल्टा कर दिया। यह राजनीतिक खेल क्यों इतनी जल्दी बदला? सवाल यह है कि क्या दबावों और पार्टी के स्वार्थ ने इन विवादों को जन्म दिया?
सात गंभीर आरोप और इनकी विस्तार से समीक्षा
NDTV की रिपोर्ट के अनुसार, जगदीप धनखड़ पर सात आरोप लगाए गए थे, जो उनकी कुर्सी को खतरे में डालने के लिए पर्याप्त साबित हुए। ये आरोप हैं:
- राघव चड्डा को क्लीन चिट देना: राज्यसभा सांसद राघव चड्डा को विशेषाधिकार समिति से साफ़-साफ़ छूट दी गई। हालाँकि, बाद में कोर्ट में मामला लड़ाई में आ गया।
- बड़ा बंगला आवंटन: चड्डा को जो बंगला दिया गया था, वह बेहद बड़ा था। जब उसे रद्द कर दिया गया, तो कोर्ट ने स्टे भी दे दिया।
- किसानों पर टिप्पणियाँ: दो बार किसानों के मुद्दों पर विरोधी बयान दिए। इन बयानों ने सरकार की आलोचना की ओर मोड़ दिया।
- जस्टिस वर्मा का मामला: सुप्रीम कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाया। इससे विवाद और तकरार बढ़ गई।
- विपक्षी नेताओं के प्रति रवैया: विपक्ष के नेताओं को तरजीह देना और महाभियोग की धमकी देना।
- महाभियोग का स्वीकृति: 21 जुलाई को बिना अनुमति के महाभियोग प्रस्ताव स्वीकार करना। इससे पता चलता है कि सरकार इस मुद्दे को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही थी।
- डिस्कशन में देरी: खरगे जैसे विपक्षी नेताओं को बिना मुद्दा लंबी बहस करने देना। यह सब आरोप व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राजनीतिक स्वार्थ से भरे हुए हैं।
आरोपों का राजनीतिक महत्व और उनके परिणाम
यह आरोप इतने गंभीर थे कि वह सीधे तौर पर उपराष्ट्रपति के पद को खतरे में डाल सकते थे। NDTV की रिपोर्ट कहती है कि इन आरोपों ने धनखड़ को बीजेपी और विपक्ष दोनों के निशाने पर ला दिया था। यह पूरी कहानी दिखाती है कि कैसे छोटी-छोटी गलतियों को बड़ा बनाने की कोशिश हुई।
बीजेपी की महाभियोग और सत्ता का खेल
यह साजिश सिर्फ राजनीति का खेल नहीं, बल्कि पूरी योजना का हिस्सा थी। 21 जुलाई को संसद के सत्र की शुरुआत में ही, पीएम मोदी सहित शीर्ष नेता सरकार के रुख को मजबूत करने में लगे थे। उच्च स्तरीय बैठक में तय हुआ कि धनखड़ का इस्तीफा लेकर उनके खिलाफ महाभियोग लाया जाएगा। सूत्र बताते हैं कि सांसदों को गुप्त तरीके से हस्ताक्षर कराए गए ताकि धनखड़ को भनक तक न लगे। यह रणनीति कितनी सूक्ष्म और गुप्त थी, यह समझना जरूरी है।
राजनीतिक खेल और सत्ता के पीछे का मकसद
यह सब स्पष्ट करता है कि भाजपा अपने ही बनाए गए वरिष्ठ पदाधिकारी को हटाने के लिए कितनी मेहनत कर रही थी। ऑपरेशन सिंदूर का प्लान भी इसी रणनीति का हिस्सा था। जब धनखड़ ने बिना स्वीकृति के चर्चा का ऐलान कर दिया, तो भाजपा का बौखलाना साफ दिखा। सांसदों से हस्ताक्षर कराना, गलतियों का बढ़ा चढ़ाकर प्रचार करना—यह सब अपने आप में एक राजनीतिक युद्ध का संकेत है।
धनखड़ का अचानक कदम: क्यों और कैसे?
रात के साढ़े नौ बजे, बिना किसी पूर्व सूचना के, धनखड़ राष्ट्रपति भवन पहुंच गए। यह कदम सीधे तौर पर राजनीतिक संदेश ही था। उन्होंने स्वास्थ्य का बहाना किया, लेकिन उनके कदम का उद्देश्य कहीं अधिक था। राष्ट्रपति से मुलाकात कर, उन्होंने इस्तीफा सौंपा, जो उसकी गंभीरता को दर्शाता है। यह सब माहौल दर्शाता है कि वह खुद भी इस पूरे खेल के पीछे किसी गहरी रणनीति को समझ रहे थे।
राजनीतिक संदेश और नाराजगी
इस घटनाक्रम से यह भी समझ में आया कि सरकार का रवैया किस तरह से बदल गया है। पार्टी के भीतर ही नाराजगी और असहमति साफ दिख रही है। यह संकेत है कि राजनीतिक सत्ता को टिकाए रखने के लिए, नेता अपनी मर्यादा और सम्मान को भी दांव पर लगा सकते हैं। क्या यह ऐसी पार्टी है जो अपने ही नेताओं को इस्तेमाल कर फिर बाहर कर देती है? सवाल के साथ ही पुराना कोड़ा फिर से हिल जाता है।
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