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वनतारा घोटाला और अम्बानी पर कानूनी शिकंजा, जानवरों के संरक्षण के नाम पर अरबों रुपए का धंधा
कानून की बराबरी पर सवाल
भारत में अक्सर यह कहा जाता है कि कानून सबके लिए बराबर है। लेकिन हकीकत बार-बार इस दावे को झुठलाती है। जब कोई गरीब सड़क किनारे छोटी गलती करता है, पुलिस तुरंत उस पर टूट पड़ती है। लेकिन बात जब आती है देश के सबसे ताकतवर उद्योगपतियों की तब कानून के पांव भारी हो जाते हैं।
यही वजह है कि जनता पूछती है क्या सचमुच न्याय केवल किताबों में है और अमीरों के लिए अलग कानून चलता है?
वनतारा प्रोजेक्ट का प्रचार
यही सवाल आज फिर खड़ा हुआ है और उसके केंद्र में है मुकेश अंबानी के लाडले बेटे अनंत अंबानी और उनका तथाकथित वन्य जीव संरक्षण प्रोजेक्ट वनतारा। अनंत अंबानी ने इस प्रोजेक्ट को दुनिया के सामने एनिमल रेस्क्यू सेंटर कह कर पेश किया।
विज्ञापनों की बाढ़ ला दी गई। इंटरव्यू और प्रेस कॉन्फ्रेंस की गई। देश विदेश से पत्रकार बुलाए गए और कैमरों के सामने वो हाथियों को फल खिलाते, घायल जानवरों के साथ खड़े होते।
कभी किसी तोते को पानी पिलाते हुए देखे गए। बड़े-बड़े मीडिया हाउस से कहा गया कि अपने संपादकों को भेजिए और एक बहुत बड़े चैनल के आज तक के कर्ता धर्ता राहुल कवल हाथियों के संग हाथियों का खाना देते हुए खाते हुए देखे गए और उनकी बड़ी मजाक उड़ाई गई कि किसी उद्योगपतियों के यहां किसी बड़े आदमी के यहां अब पत्रकार इस लेवल पर आ गए कि जानवरों का खाना भी उनको खाना पड़ रहा है।
अनंत अंबानी किसी कभी किसी तोते को पानी पिलाते हुए देखे गए। कभी किसी जानवर के साथ खड़े होते देखे गए। संदेश यह दिया गया कि यही जानवर यहां पर जानवरों की सेवा और संरक्षण ही सर्वोपरि है।
वनतारा घोटाला और अम्बानी पर कानूनी शिकंजा
लेकिन धीरे-धीरे जब परतें खुली तो सामने आया कि इस चमचमाती तस्वीर के पीछे कुछ और है। दरअसल यह चमचमाती तस्वीर एक मुखौटा थी।
आरोप लगने लगे कि वनतारा असल में जानवरों के संरक्षण का नहीं बल्कि अरबों रुपए के धंधे का अड्डा है। जर्मन के एक अखबार ने बाकायदा एक बड़ी रिपोर्ट भी छाप दी।
कहा गया कि यहां हाथियों की अवैध खरीदारी हुई। विदेशी प्रजातियों को लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानूनों को तोड़ा गया। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम को ठेंगा दिखाया गया और कार्बन क्रेडिट के नाम पर अरबों रुपए का खेल खेला गया।
जब यह सब खुलासे होने लगे तो जनता का भरोसा डगमगाने लगा। लोग पूछने लगे कि क्या यह सेवा का केंद्र है या मुनाफे का साम्राज्य?
जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट पहुंची
यह कोई नया विवाद नहीं था। 2022 में भी इस पर एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी। लेकिन उस समय उसे खारिज कर दिया गया।
क्यों खारिज की गई? क्या उस समय सबूत कम थे या फिर कॉरपोरेट ताकत ने दबाव डाल दिया। यह रहस्य अभी भी बना हुआ है। क्योंकि अंबानी है वो जजों को कैसे मैनेज करते हैं? इसकी एक कहानी अलग से है।
अदालत की दखल
लेकिन जब हाल ही में नए दस्तावेज और सबूत सामने आए तो अदालत ने इस बार इसे हल्के में नहीं लिया। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि यह मामला महज एक प्रोजेक्ट का नहीं बल्कि पारदर्शिता और कानून की साख का है।
अदालत ने तुरंत विशेषता दल यानी एसआईटी गठित कर दी और उसे आदेश दिया कि 12 सितंबर तक रिपोर्ट दाखिल की जाए और 15 सितंबर को अगली सुनवाई में पूरी सच्चाई रखी जाए। इस एसआईटी की अध्यक्षता कर रहे हैं पूर्व जस्ट सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मिश्रा।
यह आदेश अपने आप में ऐतिहासिक था क्योंकि शायद पहली बार भारत का सबसे ताकतवर कारोबारी परिवार इस तरह से न्यायिक जांच के घेरे में आया।
एसआईटी की शुरुआती जांच
जब एसआईटी की टीम एक्टिव हो गई तो मीडिया का जमावाड़ा लग गया। वो गेट वनतारा का जिसे अब तक अवैध किला माना जाता था। अंदर केवल वही लोग जा सकते थे जिनकी पहचान पहले से तय होती थी। लेकिन पहली बार कानून के हाथ यहां तक पहुंचे थे।
बताया जाता है कि टीम ने दस्तावेज मांगे। कितने जानवर खरीदे गए, किससे खरीदे गए, किस कीमत पर खरीदे गए? अंतरराष्ट्रीय परमिट दिखाने को कहा गया। विदेशी फंडिंग और दान के कागजात मांगे गए।
मेडिकल रिपोर्ट्स का मिलान किया गया कि कितने जानवर ठीक हुए और कितने मरे और मीडिया रिपोर्ट्स बताती है कि एसआईटी को यहां गंभीर अनियमितताएं मिली। यही बात सबसे डराने वाली है।
अगर यह केवल जानवरों की देखभाल का केंद्र होता तो यहां सब कुछ पारदर्शी होता। लेकिन यहां कागजात में गड़बड़ी मिली। पैसों के लेनदेन में गड़बड़ी मिली और यह शक गहराता गया कि मामला सिर्फ चार वर्षों तक सीमित नहीं बल्कि मनी लॉन्ड्रिंग और टैक्स चोरी से भी जुड़ा हुआ है।
छवि बनाम आरोप
मुकेश अंबानी की छवि लंबे समय से एनिमल लवर के रूप में गढ़ी जाती रही है। उनकी तस्वीरें बार-बार मीडिया में फैलाई गई ताकि यह संदेश जाए कि वो सिर्फ उद्योगपतियों का किसी बड़े उद्योगपति का बेटा नहीं है बल्कि वो एक संवेदनशील इंसान भी है।
लेकिन अगर यह छवि सच्ची है तो फिर क्यों इस प्रोजेक्ट पर ऐसे गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं? क्या अवैध व्यापार और फर्जी कागजात की बात सामने आई? यह गलत है? क्या यह सब इस तरह की इमेज बनाना केवल इमेज बिल्डिंग का हिस्सा था?
क्या वनतारा वास्तव में एक कॉरपोरेट ब्रांडिंग प्रोजेक्ट था जो संरक्षण के नाम पर अरबों की डील्स को छुपाने का तरीका था। जनता इस सवाल से परेशान है। अंबानी समूह कह रहा है ये सब आरोप है। इसमें कोई सच्चाई नहीं है।
जनता इसलिए परेशान है क्योंकि जब छोटे एनजीओ और समाजसेवी संगठन बिना परमिट किसी घायल जानवर की मदद करते हैं तो प्रशासन उन पर तुरंत मुकदमा ठोक देता है। छोटे-छोटे संगठन वर्षों से मेहनत कर रहे हैं। लेकिन उन पर आए दिन केस दर्ज होते रहते हैं।
लेकिन जब अंबानी परिवार पर इतने गंभीर आरोप लगे हैं तो सरकार और विभाग खामोश क्यों है? क्या यह साबित नहीं करता कि सरकारें पूंजीपतियों की गुलाम बन चुकी है? शिकंजा सचमुच कस सकता है।
अंदर की खबरें यही बताती हैं कि Reliance समूह की कानूनी टीम दिन रात सक्रिय है। हर दस्तावेज को नए सिरे से तैयार कराया जा रहा है। हर सवाल का बचाव ढूंढा जा रहा है और हर गवाह पर नजर रखी जा रही है।
लेकिन जितनी कोशिश बचाव के लिए हो रही है, उतना ही जनता के मन में ये शक गहराता जा रहा है कि अगर सब कुछ सही होता तो इतना घबराने की जरूरत ही क्यों पड़ती?
जांच की जटिलता
एसआईटी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि उसे सच तक पहुंचना है और सच तक पहुंचना आसान नहीं है क्योंकि यह मामला महज जानवरों के संरक्षण का नहीं बल्कि अरबों की अंतरराष्ट्रीय डील्स का है।
कार्बन क्रेडिट्स, विदेशी दान, कंपनियों के साथ समझौते इन सबका जाल इतना बड़ा है कि उसमें उलझकर सच्चाई दब सकती है। लेकिन अदालत के निगरानी ने थोड़ी उम्मीदें जताई हैं।
अगर सुप्रीम कोर्ट हर कदम पर पूछताछ करता रहा तो शायद यह मामला कहीं खो नहीं पाएगा। सच सामने आएगा।
अनंत अंबानी की भूमिका
अनंत अंबानी की भूमिका भी अब सवालों के घेरे में है। प्रचार में उन्हें पशु प्रेमी के तौर पर दिखाया गया। लेकिन एसआईटी को जो दस्तावेज मिले हैं उनमें में उनका नाम सीधे कई सौदों से जुड़ा बताया जाता है। ऐसा सूत्रों का कहना है। बात की पुष्टि अभी नहीं हुई है।
कहा जा रहा है कि विदेशी हाथियों की खरीद के समझौते उनके निर्देश पर खड़े हुए। सवाल यह हुए कि अगर यह सब कानूनी तौर पर सही था तो फिर कागजों में इतनी गड़बड़ी की बात की चर्चा क्यों हो रही है?
यही वजह है कि अब अनंत अंबानी की वो बनी बनाई छवि भी टूट रही है जिसे वर्षों से मीडिया के जरिए सजाया गया था।
सत्ता, मीडिया और प्रभाव
शादी का इवेंट आप सब भूले नहीं होंगे। सत्ता और कॉर्पोरेट का गठजोड़ इस जांच की सबसे बड़ी बाधा है। यह सबको पता है कि अंबानी परिवार का प्रभाव केवल व्यापार तक सीमित नहीं है।
इस बीच मीडिया की भूमिका और भी संदिग्ध हो गई है। कुछ चैनलों ने शुरू में हिम्मत दिखाते हुए इस मामले पर रिपोर्टिंग की। लेकिन वह भी अब धीरे-धीरे चुप हो गए।
कहा जा रहा है कि Reliance समूह ने भारी भारी विज्ञापन हजारों करोड़ के विज्ञापन दे दिए हैं। इसलिए मीडिया खामोश हो गई है। यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना है कि जनता के लिए सच्चाई बताने वाला चौथा स्तंभ भी अब खरीदा जा सकता है।
लोकतंत्र की कसौटी
जब मीडिया बिक चुका हो, राजनीति खामोश हो और नौकरशाही दबाव में हो तब केवल न्यायपालिका ही से ही उम्मीद बचती है। लेकिन अगर न्यायपालिका भी डगमगा गई तो फिर लोकतंत्र का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
जनता अब यह मानने लगी है कि मामला किसी एक प्रोजेक्ट का नहीं बल्कि पूरे सिस्टम का है। अगर अंबानी जैसे ताकतवर लोगों पर कारवाई हो सकती है तो यह एक ऐतिहासिक मिसाल होगी। लेकिन अगर वो बच गए तो यह जनता के विश्वास पर सबसे बड़ा आघात होगा।
ये सिर्फ एक कॉर्पोरेट घोटाला नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय धोखाधड़ी होगी। इससे भारत की छवि दुनिया में बुरी तरह प्रभावित होगी और सवाल उठेगा कि क्या भारत में बड़े उद्योगपति कानून से ऊपर हैं?
जनता अब और भी आक्रोशित हो रही है। सोशल मीडिया पर लगातार यह सवाल उठ रहा है कि क्यों अंबानी परिवार के खिलाफ कोई बड़ा राजनीतिक दल आवाज नहीं उठा रहा। विपक्षी दल भी खामोश क्यों हैं?
जवाब साफ है। सबको चुनाव के लिए चंदा चाहिए और अंबानी परिवार हर दल की जरूरत है। यही कारण है कि किसी की जुबान नहीं खुल रही। लेकिन जनता जानती है कि अगर राजनीति खामोश है। मीडिया बिक चुका है और नौकरशाही दबाव में है तो एकमात्र उम्मीद सुप्रीम कोर्ट से है।
अगर यह जांच निष्पक्ष रूप से पूरी हुई और अंबानी परिवार पर आरोप साबित हुए तो यह भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक बड़ा मोड़ होगा। ये वो क्षण होगा जब जनता कहेगी सचमुच कानून सबके लिए बराबर है।
लेकिन अगर यह मामला भी दबा दिया गया तो जनता के मन से यह आखिरी उम्मीद भी टूट जाएगी। लोग मान जाएंगे कि भारत में कानून सिर्फ गरीब और कमजोर के लिए है। ताकतवर के लिए नहीं।
पर्यावरण और संरक्षण
इस मामले का एक और पहलू है पर्यावरण और वन्य जीवों का असली संरक्षण। भारत में पहले से ही हाथियों और अन्य लुप्त प्राय प्रजातियों की स्थिति खराब है।
अगर वन जीवों का संरक्षण केवल पूंजीपतियों के हाथ में सौंप दिया जाएगा तो वो कभी भी निष्पक्ष नहीं होगा क्योंकि पूंजीपति हमेशा मुनाफा देखता है संरक्षण नहीं। वनतारा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
बाहर से यह सेवा का मंदिर दिखता है लेकिन भीतर यह मुनाफे का अड्डा है। लोग कहते हैं। यही कारण है कि कार्यकर्ता इसे ग्रीन सर्कस कह रहे हैं। जिसमें जानवर केवल दिखावे का साधन है।
न्यायपालिका की जिम्मेदारी
इस समय सबसे बड़ी जिम्मेदारी न्यायपालिका पर है। सुप्रीम कोर्ट को यह साबित करना होगा कि उसका हाथ सचमुच सबसे ताकतवर दरवाजे तक पहुंच सकता है।
एसआईटी की रिपोर्ट अगर निष्पक्ष और सख्त आई तो यह एक क्रांतिकारी क्षण होगा। लेकिन अगर रिपोर्ट कमजोर आई या फिर उसे दबा दिया गया तो लोकतंत्र की साख हमेशा के लिए गिर जाएगी।
इस पूरी कहानी का निष्कर्ष यह है कि वनारा सिर्फ एक प्रोजेक्ट नहीं बल्कि उस पूरे सिस्टम का आईना है जिसमें पूंजी, राजनीति और मीडिया मिलकर कानून को बंधक बना लेते हैं। अगर इस बार भी जनता को न्याय नहीं मिला तो लोगों का भरोसा टूट जाएगा और यह टूटना खतरनाक होगा।
क्योंकि जब जनता का भरोसा न्याय से उठता है तो समाज अराजकता की ओर बढ़ता है। अनंत अंबानी और उनका परिवार चाहे जितनी भी कोशिश कर ले लेकिन सच्चाई यह है कि आज पूरा देश देख रहा है। जनता यह जानना चाहती है कि क्या भारत में कानून सबसे ताकतवर घराने तक पहुंच सकता है।
अगर हां तो यह लोकतंत्र की जीत होगी और अगर नहीं तो यह साबित कर देगा कि भारत में कानून सिर्फ गरीब और कमजोरों के लिए है। ताकतवरों के लिए नहीं। इस पूरी बहस के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर जनता कब तक इस तरह की बातों को सहती रहेगी।
देश की युवा पीढ़ी जो आज सोशल मीडिया पर खुलकर बोल रही है वह जान चुकी है कि भारत का लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब सबसे ताकतवर लोगों को भी कटघरे में खड़ा किया जाएगा। विश्वविद्यालयों में शहर के चौक चौराहों पर और गांव के पंचायत घरों में अब यह चर्चा होने लगी है कि अगर अंबानी जैसे घराने को छोड़ दिया गया तो आने वाली पीढ़ियां कभी भी न्यायपालिका पर भरोसा नहीं करेगी।
यह आवाज धीरे-धीरे गूंज बन रही है और यह गूंज आने वाले दिनों में सरकारों के लिए सबसे बड़ा खतरा बनेगी। कुछ वरिष्ठ वकील भी खुलकर बोल रहे हैं कि मामला सिर्फ वन जीव संरक्षण का नहीं है बल्कि संविधान की आत्मा का है।
अगर अदालत इस मामले में निष्पक्ष और सख्त फैसला देती है तो यह संविधान की जीत होगी। लेकिन अगर अदालत दबाव में आई तो संविधान की सबसे बड़ी हार होगी। इसलिए सबकी नजर अब सुप्रीम कोर्ट और एसआईटी की रिपोर्ट पर है।
यह सच है कि अंबानी परिवार दुनिया के सबसे अमीर घरानों में एक है। लेकिन अगर भारत जैसे लोकतंत्र में पैसा ही सब कुछ तय करने लगे तो फिर यह लोकतंत्र नहीं बल्कि धनतंत्र कहलाएगा। और यही खतरा आज सबसे बड़ा है।
जनता चाहती है कि इस बार न्याय हो चाहे सामने कितना भी ताकतवर क्यों ना हो। अगर ऐसा हुआ तो यह भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी जीत होगी।
निष्कर्ष
आखिर में यही कहा जा सकता है कि वनतारा मामला केवल एक प्रोजेक्ट की सच्चाई नहीं बल्कि भारत के लोकतंत्र का आईना है। यहां ये तय होगा कि क्या सुप्रीम कोर्ट सबसे ताकतवर घरानों को भी कानून के कटघरे में ला सकता है या फिर हमेशा की तरह मामला दब जाएगा।
अगर न्यायपालिका ने हिम्मत दिखाई तो इतिहास में दर्ज होगा कि भारत में कानून से ऊपर कोई नहीं है। लेकिन ये मामला भी पैसे और दबाव की भेंट चढ़ गया तो जनता मान लेगी कि ये देश अब लोकतंत्र नहीं बल्कि अमीरों के खेल का मैदान है। यही वह क्षण है जो आने वाली पीढ़ियों के भरोसे को तय करेगा।
यह भी देखें – Karnataka में Elections बैलेट पेपर से: Congress ने चली चाल, चुनाव आयोग सकते में!