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Government new weapon: नाम “सहयोग” काम खतरनाक! अब आपकी आवाज सरकार के कब्जे में
सरकार का नया हथियार (Government new weapon): कहते हैं कि लोकतंत्र जनता की आवाज होता है। लेकिन हमारे यहां लोकतंत्र की हालत यह है कि जनता अगर जोर से आवाज निकाल भी दे तो सरकार कान बंद करके बैठ जाती है। और फिर सोशल मीडिया कंपनियों को बोलती है कि भाई इस आवाज से मुझे बहुत दिक्कत हो रही है। इस आवाज को बंद कर दो।
आज हम जिस बारे में बात करने जा रहे हैं वो देश के हर एक नागरिक से जुड़ी है। आपकी विचारधारा चाहे कुछ भी हो आप मोदी जी के आलोचक हो या फिर उनके समर्थक लेकिन आपको इसे सुनना जरूर चाहिए। कहानी की शुरुआत होती है 15 फरवरी से। जगह थी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन। मौका था प्रयागराज का कुंभ मेला। स्टेशन पर अफरातफरी मची। भगदड़ हुई और 18 लोगों ने अपनी जान गंवा दी। यह हादसा दर्दनाक था।
सरकार को अपनी इमेज की चिंता
सोचिए उनके परिवारों का क्या हाल हुआ होगा। अब उम्मीद थी कि सरकार तुरंत गंभीर एक्शन लेगी। व्यवस्था की समीक्षा करेगी, दोषियों पर कारवाई करेगी और लोगों को भरोसा दिलाएगी कि ऐसा फिर ना हो। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। हमारे यहां प्राथमिकता अलग है। सरकार को उस वक्त अपनी इमेज की पड़ी थी।
सरकार ने सबसे पहले यह सोचना शुरू किया कि लोग सोशल मीडिया पर क्या बोल रहे हैं? कौन ट्वीट कर रहा है, कौन वीडियो डाल रहा है, कौन Facebook पर पोस्ट कर रहा है। यानी लोग तो मर गए लेकिन सरकार को चिंता इस बात की थी कि कहीं उनकी आलोचना ना हो।
Government new weapon: नाम “सहयोग” काम खतरनाक
ये तो अजबी देश है जहां जनता की जान से ज्यादा सरकार की इमेज की कीमत है और यही एंट्री होती है सरकार के नए सुपरहिट हथियार सहयोग प्लेटफार्म की। अब सुनिए नाम रखा गया “सहयोग”। सुनकर लगता है कि कोई मदद का सिस्टम होगा। कोई ऐसा ऐप होगा जिससे जनता सरकार से मदद ले सके। लेकिन असल में यह मदद नहीं सेंसरशिप का सिस्टम है। नाम प्यारा काम खतरनाक।
पहले क्या होता था कि सोशल मीडिया से पोस्ट हटाने का आदेश सिर्फ दो मंत्रालय दे सकते थे। आईटी मंत्रालय और आईबी मंत्रालय। और लेकिन अक्टूबर 2024 में मोदी सरकार ने “सहयोग” नाम का एक पोर्टल लांच किया और इसके बाद तो खेल ही बदल गया। अब ना सिर्फ छोटे अधिकारी बल्कि छोटे से छोटा जिला पुलिस अधिकारी भी सोशल मीडिया कंपनी से कह सकता है कि उसे यह पोस्ट पसंद नहीं है। इसे हटा दो और अगर प्लेटफार्म ने ना माना तो सरकार धमकी देती है कि तुम्हारी इंटरमीडिएटरी कम्युनिटी छीन ली जाएगी।
क्या है इंटरमीडिएटरी इम्यूनिटी?
अब आप सोच रहे होंगे कि यह इंटरमीडिएटरी इम्यूनिटी का मतलब क्या है? तो दरअसल यह एक कानूनी सुरक्षा है जो सोशल मीडिया कंपनियों को बचाती है। अगर किसी यूजर ने कुछ पोस्ट किया है तो उसका जिम्मेदार प्लेटफार्म नहीं होगा। लेकिन सरकार कहती है कि अगर तुमने हमारा आदेश ना माना तो यह सुरक्षा खत्म कर देंगे। यानी फिर हर पोस्ट का केस सीधे कंपनी पर और यह खतरा इतना बड़ा है कि ज्यादातर कंपनियां चुपचाप सरकार की बात मान लेती है। इस हथियार के जरिए अब तक करीब 3465 लिंक हटाने के आदेश दिए जा चुके हैं।
डिजिटल सेंसरशिप: सरकार और कम्पनियों की मिलीभगत
अब एक किस्सा सुनिए। बिहार के एक जिले के पुलिस अधिकारी पर किसी शख्स ने भ्रष्टाचार का इल्जाम लगा दिया। बस अधिकारी तिलमिला गए। तुरंत एक्स को आदेश भेज दिया कि यह पोस्ट हटाओ। लेकिन एक्स ने हटाने से इंकार कर दिया और उस बेचारे यूजर को तो पता ही नहीं चला कि सरकार उसकी पोस्ट हटवाना चाहती थी। उसे तब पता चला जब मीडिया ने फोन किया। सोचिए किस लेवल का खेल है। टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ मशी चौधरी कहती है कि सहयोग नाम ही बताता है कि सरकार और कंपनियां मिलकर काम कर रही हैं।
डिजिटल इंडिया की असली तस्वीर
बाहर दुनिया में यह कंपनियां फ्री स्पीच का ढोल पीटती हैं। लेकिन अंदर सरकार की हां में हां मिलाकर सेंसरशिप करती है। यह है डिजिटल इंडिया की असली तस्वीर। आज भारत में लोकतंत्र का मतलब यह नहीं रह गया है कि आप सवाल पूछ सकते हैं बल्कि यह रह गया है कि आप सरकार की तारीफ करते रहे। अब यह मत सोचिए कि सेंसरशिप का खेल अचानक सहयोग आने के बाद ही शुरू हुआ है। असलियत तो यह है कि 2014 में जब से मोदी जी सत्ता में आए तब से यह ट्रेंड लगातार बढ़ता गया।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
आंकड़े कह रहे हैं कि 2014 में जहां सरकार ने सिर्फ 471 पोस्ट हटवाने के आदेश दिए थे तो वहीं 2022 तक यह संख्या 14 गुना बढ़कर 6775 तक पहुंच गई। मतलब साफ है कि जैसे-जैसे सरकार का कार्यकाल बढ़ा वैसे-वैसे सेंसरशिप का कार्यकाल भी तेजी से बढ़ता गया। याद रखिए कि यह सारे आदेश सेक्शन 69 ए के तहत दिए गए थे। जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि इसे इस्तेमाल करने के लिए सख्त नियम और पारदर्शिता जरूरी है। लेकिन 2022 के बाद की जानकारी सरकार ने उसे सीधा दबा दिया।
अलजजीरा ने RTI डाला
अलजजीरा ने जुलाई में आरटीआई डाली थी कि अब कितने आदेश दिए जा रहे हैं। सरकार ने कहा कि सॉरी नेशनल सिक्योरिटी का मामला है। नहीं बता सकते। अब सोचिए एक तरफ आप बोलते हो कि लोकतंत्र में पारदर्शिता जरूरी है। दूसरी तरफ सेंसरशिप के आंकड़े भी गोपनीय बना दिए। अब लोकतंत्र का मतलब सिर्फ वोट डालना तो नहीं होता। लोकतंत्र का मतलब है सवाल पूछना, सरकार को जवाबदेह बनाना और अपनी आवाज बुलंद करना।
डिजिटल जेल: सलाखें सर्वर और एल्गोरिदम
आज जो हालात हैं उन्हें देखकर लगता है कि हम किसी लोकतंत्र में नहीं बल्कि एक डिजिटल जेल में जी रहे हैं। फर्क बस इतना है कि यहां सलाखें लोहे की नहीं बल्कि सर्वर और एल्गोरिदम की है। अस्पतालों में दवाई नहीं है। बेरोजगारों के लिए नौकरी नहीं है। किसान सड़क पर हैं। लोग भगदड़ में मर रहे हैं। लेकिन सरकार को चिंता किस बात की है कि Facebook पर कौन क्या लिख रहा है? Twitter पर कौन सा मीम डाल रहा है? और अब सरकार ने सहयोग जैसे प्लेटफार्म बनाकर हर अधिकारी हर पुलिस वाले को यह ताकत दे दी कि वो तय करें कि कौन सी पोस्ट देशभक्ति है और कौन सी देशद्रोह की कौन सी बात जनहित की है और कौन सी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा।
सरकार के कब्जे में आपकी आवाज
जरा सोचिए जब आलोचना भी सुरक्षा के लिए खतरा बन जाए तो लोकतंत्र किस काम का। आप सोचिए कल को अगर किसी कांस्टेबल को आपकी पोस्ट पसंद नहीं आई तो वह भी आदेश भेज सकता है कि भाई हटाओ इसे। और आप सोचते रहेंगे कि आपकी आवाज कहां गई? यह है हमारे लोकतंत्र की नई परिभाषा जहां बोलने की आजादी है लेकिन उतनी ही जितनी सरकार को मंजूर है। जहां सोशल मीडिया खुला है लेकिन बस उतना ही जितना “सहयोग” कहे और तो और अगली बार जब आप कोई पोस्ट लिखें और कोई मीम डालें या कोई तंज कसे तो ध्यान रखिएगा कि कहीं कोई साहब नाराज ना हो जाए। वरना आपकी पोस्ट भी गायब हो सकती है।
अघोषित आपातकाल: आवाज पर सेंसर का ताला
वैसे भी इस सरकार में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के बारे में बहुत बात होती है। लेकिन आज के दौर में अघोषित आपातकाल लगा हुआ है। उसके बारे में कोई नहीं बोलता है। क्यों? क्योंकि जब उस समय आपातकाल लगा था तो प्रधानमंत्री ने खुद रेडियो पर इसकी सूचना दी थी। लोगों को बताया गया था। लेकिन आज अघोषित आपातकाल लगा हुआ है और कोई जानता ही नहीं है।
इसीलिए यह और भी ज्यादा खतरनाक है। तो अब सवाल सीधा है कि क्या हम ऐसे लोकतंत्र में रहना चाहते हैं जहां हर आवाज पर सेंसर का ताला लगे? क्या हमें ऐसा भारत चाहिए जहां सरकार का एक आदेश आपकी जुबान पर ‘म्यूट’ बटन लगा दे? अगर नहीं तो याद रखिएगा कि लोकतंत्र में सबसे बड़ा हथियार जनता की आवाज है और अगर वही छीन ली जाए तो लोकतंत्र सिर्फ दिखावे की मूरत बनकर रह जाता है।
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