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Surat Railway Station की भयावह सच्चाई: प्रवासी मजदूरों की घर वापसी में सरकार का धोखा वादा

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सूरज की तेज धूप में सैकड़ों लोग लाइन में खड़े हैं। वे राशन के लिए नहीं। वे घर जाने वाली ट्रेन पकड़ने आए हैं। लेकिन यह यात्रा आसान नहीं लग रही। यह दृश्य सूरत के उधना रेलवे स्टेशन (Surat Uthana Railway Station) का है। दिवाली और छठ जैसे त्योहारों पर घर लौटने की खुशी में ये मजदूर घंटों इंतजार कर रहे। सरकार ने हजारों स्पेशल ट्रेन चलाने का वादा किया था। लेकिन हकीकत कुछ और ही बयान कर रही है। ये प्रवासी मजदूर देश की रीढ़ हैं। फिर भी उनकी परेशानी पर कोई ध्यान नहीं। शहरों की चमक-दमक पर करोड़ों खर्च होते हैं। लेकिन इन मेहनतकश लोगों की थकान को कौन समझेगा? यह संघर्ष सिर्फ एक स्टेशन की कहानी नहीं। यह पूरे सिस्टम की कमजोरी दिखाता है।

Surat Railway Station उधना की भयावह सच्चाई

उधना रेलवे स्टेशन पर यह मंजर देखकर दिल दुखता है। लोग घंटों धूप में खड़े रहते हैं। ट्रेन में चढ़ने के लिए वे परीक्षा की तरह लाइन लगाते हैं। वीडियो में दिख रहा है कि ये लोग सिर्फ घर जाना चाहते हैं। लेकिन व्यवस्था इतनी खराब है कि इंतजार ही सजा बन जाता है। सूरत जैसे शहर में हजारों मजदूर काम करते हैं। वे त्योहारों पर परिवार से मिलने को बेताब होते हैं। फिर भी स्टेशन पर अव्यवस्था का राज चलता है। यह सिर्फ एक दिन की बात नहीं। हर फेस्टिवल सीजन में यही होता है।

स्पेशल ट्रेनों का धोखा वादा

सरकार ने कहा था। दिवाली और छठ पर हजारों स्पेशल ट्रेनें चलेंगी। लाखों प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाने का प्लान था। लेकिन जमीनी हकीकत अलग है। स्टेशन पर ट्रेनें कम हैं। भीड़ ज्यादा। टिकट लेना मुश्किल। लोग घंटों लाइन में लगते हैं। फिर भी सीट नहीं मिलती। यह वादा सिर्फ कागजों पर रह गया। प्रवासी मजदूरों की घर वापसी रुक जाती है। क्या यह योजना का मजाक नहीं? असल में स्पेशल ट्रेनें पर्याप्त नहीं। न ही उनका प्रबंधन ठीक। मजदूरों को लगता है। घर जाना भी भाग्य की बात है।

धूप में शारीरिक कष्ट: घंटों का इंतजार

सूरज की किरणें जलाती हैं। लोग छतरी के बिना खड़े रहते हैं। पानी की व्यवस्था नहीं। बच्चे रोते हैं। बूढ़े थक जाते हैं। उथना स्टेशन पर यही होता है। मजदूर सुबह से शाम तक लाइन में। ट्रेन आने का इंतजार। पसीना बहता है। थकान बढ़ती है। फिर भी शिकायत कोई नहीं। वे सिर्फ घर पहुंचना चाहते हैं। यह शारीरिक पीड़ा सिर्फ शरीर को नहीं। मन को भी तोड़ती है। स्टेशन पर छाया या पानी के स्टॉल क्यों नहीं? सरकारी लापरवाही साफ दिखती है।

भाग्य की लॉटरी: ‘नसीब’ और चढ़ने का मौका

नसीब ही बोलेंगे ना। ट्रेन में बैठना किस्मत की बात बन गया। कोई सिस्टम नहीं। जो पहले पहुंचे। वही चढ़ जाए। बाकी बाहर रह जाएं। प्रवासी मजदूरों के लिए यह अन्याय है। वे हकदार हैं। सम्मानजनक यात्रा के। लेकिन यहां सब कुछ भाग्य पर। क्या घर जाना अपराध है? स्टेशन पर पुलिस भीड़ को संभाल नहीं पाती। लोग धक्का-मुक्की करते हैं। यह दृश्य डरावना है। मजदूरों की मेहनत व्यर्थ लगती है।

राष्ट्र का असली इंजन: प्रवासी मजदूर

ये मजदूर देश चलाते हैं। बिना उनके विकास रुक जाता। वे शहर बनाते हैं। सड़कें डालते हैं। फैक्टरियां चलाते हैं। फिर भी त्योहार पर घर जाते समय उपेक्षा। उथना स्टेशन की यह घटना पूरे देश की कहानी है। लाखों प्रवासी मजदूर हर साल सफर करते हैं। उनकी कमाई से अर्थव्यवस्था मजबूत होती है। लेकिन उनकी जरूरतों को भुला दिया जाता। हम सब इनके कंधों पर सवार हैं। फिर भी सम्मान नहीं। यह सोच बदलनी होगी। मजदूरों को इंजन कहना सही है। वे बिना रुके काम करते हैं।

आर्थिक योगदान बिना बेसिक सपोर्ट

प्रवासी मजदूर निर्माण में लगे रहते हैं। उद्योगों को गति देते हैं। बुनियादी ढांचे बनाते हैं। देश का जीडीपी इनके हाथों से बढ़ता है। लेकिन आंकड़े बताते हैं। करोड़ों मजदूर इंटर-स्टेट माइग्रेशन करते हैं। फिर भी ट्रेनों में जगह नहीं। घर वापसी के लिए संघर्ष। क्या यह न्याय है? सरकार को इनकी भूमिका समझनी चाहिए। बिना सपोर्ट के योगदान बेकार। मजदूर थकते हैं। लेकिन काम नहीं छोड़ते। यह समर्पण सराहनीय है।

कड़ी मेहनत की अनदेखी

समाज इन्हें भूल जाता है। काम खत्म हो जाए। तो मजदूर अदृश्य हो जाते। त्योहारों पर घर लौटते हैं। तब परेशानी बढ़ती। शहरों में सजावट होती। लेकिन स्टेशनों पर अव्यवस्था। मजदूरों की थकान कोई नहीं देखता। वे परिवार से मिलना चाहते। लेकिन सिस्टम रुकावट डालता। यह अन्याय है। मेहनतकश वर्ग को महत्व दो। वरना विकास का सपना अधूरा रहेगा।

गलत प्राथमिकताएं: सजावट बनाम सम्मान

शहर चमकते हैं। लाइटें जलती हैं। करोड़ों रुपये सजावट पर। लेकिन मजदूरों की यात्रा पर ध्यान कम। उथना स्टेशन पर भीड़। कोई प्रबंधन नहीं। यह तुलना शर्मनाक है। विकास का दिखावा क्यों? असल जरूरतें भूल क्यों जाते? प्रवासी मजदूरों की घर वापसी प्राथमिकता होनी चाहिए। बजट सही जगह लगे। सम्मानजनक व्यवस्था बने।

शहरी सौंदर्यीकरण बजट पर सवाल

फेस्टिवल पर शहर सजते हैं। करोड़ों खर्च। लाइट्स, डेकोरेशन। लेकिन रेलवे स्टेशनों पर क्या? पानी, छाया, टिकट काउंटर। ये बेसिक चीजें क्यों नहीं? सूरत जैसे शहर में मजदूरों की संख्या लाखों। उनकी यात्रा के लिए बजट अलग चाहिए। सजावट से ज्यादा महत्वपूर्ण है। मानवीय जरूरतें। सरकार सोचे। पैसा कहां लग रहा?

खराब प्लानिंग से खतरा बढ़ता। भीड़ में हादसे हो सकते। सुरक्षा का अभाव। ट्रस्ट टूटता है। लोग सरकार से नाराज। प्रवासी मजदूर निराश होते। घर न पहुंच पाएं। तो परिवार दुखी। यह चेन रिएक्शन है। समाज प्रभावित होता। सिस्टम सुधारें। वरना समस्या बढ़ेगी।

कामकाजी वर्ग की मुख्य मांगें: सुरक्षा, सम्मान और संवेदनशीलता

मजदूरों को तीन चीजें चाहिए। सुरक्षित यात्रा। सम्मानजनक व्यवस्था। थोड़ी संवेदनशील सोच। यह मांग बड़ी नहीं। फिर भी पूरी नहीं होती। उथना स्टेशन वीडियो यही दिखाता। सरकार ध्यान दे। मजदूर नागरिक हैं। उनके हक सुरक्षित रखें।

सुरक्षित यात्रा मतलब सही भीड़ नियंत्रण। टिकट सत्यापन। वेटिंग एरिया। स्टेशन पर सीसीटीवी। पुलिस तैनाती। ट्रेनों में जगह पर्याप्त। हादसों से बचाव। मजदूरों को लगे। सफर सुरक्षित है। बिना डर के घर जाएं।

फेयर क्यूइंग हो। पानी, छाया उपलब्ध। बेसिक सुविधाएं दें। लंबे इंतजार में आराम। ग्राउंड लेवल पर प्रोटोकॉल सुधारें। टिकट बुकिंग आसान। ऐप या हेल्पलाइन। मजदूरों को इज्जत मिले।

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