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Bihar election result 2025: नेताओं के रिश्तेदार का चुनाव में क्या रहा हाल?

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बिहार चुनाव पारिवारिक राजनीति की असली परीक्षा बन गया। बड़े नेताओं के रिश्तेदार पहले कभी नहीं देखे गए अंदाज़ में चुनावी मैदान में कूद पड़े। कुछ ने अपने पिता के नाम पर जीत हासिल की। ​​कुछ बुरी तरह हार गए। हमने साफ़ तौर पर बिखराव देखा। एनडीए के चुने हुए परिवार अक्सर बड़ी जीत हासिल करते थे। लेकिन महागठबंधन के युवा नेता जूझते रहे। मतदाताओं ने कुछ बच्चों का उत्साहवर्धन तो किया, लेकिन कुछ का विरोध क्यों किया? आइए बिहार के सत्ता के खेल को हिला देने वाली जीत और हार पर एक नज़र डालते हैं।

तेजस्वी यादव की मामूली जीत: राजद के लिए एक चेतावनी संकेत

तेजस्वी यादव राजद का चेहरा बनकर उभरे। उनका लक्ष्य मुख्यमंत्री पद था। लेकिन राघवपुर में उनकी लड़ाई ने परिवार के कवच में दरारें दिखा दीं।

लालू यादव के बेटे तेजस्वी को इस बार असली चुनौती का सामना करना पड़ा। पिछले चुनावों में, वे बड़ी बढ़त के साथ आगे बढ़ते रहे थे। मतदाता हमेशा बिना किसी हिचकिचाहट के उनका समर्थन करते थे। अब नहीं। यादव समुदाय से ही आने वाले भाजपा के सतीश कुमार ने उन्हें कड़ी टक्कर दी। पूरी रात गिनती आगे-पीछे होती रही। तेजस्वी लड़ाई में तो रहे, लेकिन इससे वे थक गए। यह कांटे की टक्कर राजद के दिग्गजों के लिए हवा बदलने का संकेत दे रही है।

आप उन अपडेट्स में तनाव महसूस कर सकते हैं। एक मिनट आगे, अगले मिनट पीछे। तेजस्वी की टीम की साँसें अटकी हुई होंगी। उनकी जीत तो हुई, लेकिन साथ ही सावधानी की भी। बिहार के लोग सिर्फ़ नाम से ज़्यादा चाहते हैं। उन्हें ज़मीनी स्तर पर काम करने की चाहत है।

राघवपुर मार्जिन का सांख्यिकीय विश्लेषण

आंकड़े पूरी कहानी बयां करते हैं। तेजस्वी ने इतने वोट बटोरे कि उनकी सीट पक्की हो गई। लेकिन अंतर बहुत कम था। सतीश कुमार ने भी थोड़ा-बहुत वोट हासिल किया। तेजस्वी 14,532 वोटों से जीते। यह उनके पिछले मुकाबलों से थोड़ा कम है।

तेजस्वी यादव: लगभग 1,15,597 वोट (रुझानों के आधार पर)।
सतीश कुमार: लगभग 1,01,065 वोट।

रुकिए, रिपोर्ट्स में कच्चे आंकड़ों में थोड़ा अंतर है। लेकिन अंतर 14,532 पर ही टिका है। यह कड़ी टक्कर दर्शाता है। राजद अब सुरक्षित सीटों को हल्के में नहीं ले सकता। इस बार मतदाताओं ने अपनी वफ़ादारी बँट दी है।

तेज प्रताप यादव की चौंकाने वाली हार: पारिवारिक कलह और वोटों का बंटवारा

तेज प्रताप ने परिवार से नाता तोड़ लिया। राजद द्वारा निकाले जाने के बाद उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली। इस साहसिक कदम से महुआ में पार्टी को भारी नुकसान हुआ।

तेजप्रताप यादव: पार्टी विभाजन के बाद दांव

तेज प्रताप ने अपनी नई शुरुआत के लिए महुआ को चुना। कभी हसनपुर पर उनका कब्ज़ा था। वहीं टिके रहने से शायद उनकी जान बच जाती। लेकिन वे अपने पुराने मैदान में लौट गए। उन्होंने जनशक्ति जनता दल बनाया। प्रशंसकों को वापसी की उम्मीद थी। लेकिन वे तीसरे नंबर पर रहे। लोजपा के उम्मीदवार ने बाजी मार ली। यादव परिवार के लिए यह हार बहुत दर्दनाक थी।

कल्पना कीजिए: एक शीर्ष नेता का बेटा, अब अपने दम पर। पहले तो भीड़ ने तालियाँ बजाईं। लेकिन वोट नहीं मिले। पारिवारिक रिश्ते टूट गए, और उसके मौके भी। इसने उजागर कर दिया कि मतभेद कैसे किसी अभियान को ख़त्म कर सकते हैं।

मोहुवा वोट वितरण का विश्लेषण

नतीजे ज़बरदस्त रहे। लोजपा के संजय कुमार सिंह सबसे आगे रहे। राजद के उम्मीदवार पीछे रहे, लेकिन तेज प्रताप को हरा दिया। हर जगह फूट ने विपक्ष को नुकसान पहुँचाया।

  • संजय कुमार सिंह (एलजेपी): 87,641 वोट।
  • मुकेश कुमार रोशन (राजद): 42,644 वोट.
  • तेज प्रताप यादव (जनशक्ति): 35,703 वोट।

विजेता का पलड़ा 44,000 वोटों तक पहुँच गया। यह बहुत बड़ी बात है। AIMIM और निर्दलीयों ने भी वोटों में सेंध लगाई। अगर तेजप्रताप राजद के साथ रहते, तो वोटों का विलय हो सकता था। लोजपा के ज़मीनी प्रयासों ने इसे पक्का कर दिया। यहाँ कोई भी पारिवारिक नाम जीत नहीं दिला सका।

एनडीए ने पारिवारिक दांवों में चतुराई दिखाई। उन्होंने ऐसे रिश्तेदारों को चुना जो दर्शकों के साथ घुल-मिल गए। जीत का सिलसिला बढ़ता गया, जिससे मज़बूत समर्थन का पता चला।

एनडीए की सफलता की कहानियाँ

जीतन राम मांझी की पार्टी ने खूब चमक बिखेरी। उन्होंने अपनी बहू दीपा कुमारी को इमामगंज भेजा। उन्होंने आसानी से सीट जीत ली। फिर उनकी रिश्तेदार ज्योति देवी बाराचट्टी गईं। दोनों ने मुस्कुराते हुए जीत हासिल की।

उपेंद्र कुशवाहा भी इस मस्ती में शामिल हो गए। उनकी पत्नी स्नेहलता सासाराम से चुनाव लड़ीं। उन्होंने अच्छे वोटों से जीत हासिल की। ​​एनडीए का इन उम्मीदवारों पर भरोसा रंग लाया। मतदाताओं ने उन्हें सुरक्षित हाथों में देखा। पारिवारिक संबंधों ने तो मदद की, लेकिन गठबंधन की ताकत ने उन्हें और मज़बूत किया।

ये कहानियाँ एनडीए के प्रशंसकों के दिलों को छू जाती हैं। रिश्तेदारों ने बिना किसी खास शोर-शराबे के आगे आकर मदद की। कोई बड़ा ड्रामा नहीं। बस लगातार जीत ने गति पकड़ी।

तुलना: एनडीए परिवार के उम्मीदवार बनाम महागठबंधन की दूसरी पीढ़ी

एनडीए के रिश्तेदारों का गर्मजोशी से स्वागत हुआ। महागठबंधन की अगली पीढ़ी को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। ज़रा सोचिए। बीजेपी और उसके सहयोगियों ने अपने परिवार के सदस्यों को मैदान में उतारा जो इस ढांचे में फिट बैठते थे। विपक्ष के बच्चे? ऐसा नहीं है।

जनता का विश्वास एनडीए की ओर झुका। उन्होंने मज़बूत टीमों के उम्मीदवारों का समर्थन किया। महागठबंधन के वारिसों ने पिताओं की परछाईं का पीछा किया। मतदाताओं ने फीके गौरव की बजाय नए उम्मीदवारों को चुना। यह विभाजन बिहार चुनावों में एक नई दिशा दर्शाता है। अब गठबंधन खून से ज़्यादा मायने रखते हैं।

ओसामा साहब का असाधारण मामला: वंशवादी प्रवृत्ति को चुनौती देना

ओसामा साहब एक दर्दनाक अंगूठे की तरह उभरे। दिवंगत शहाबुद्दीन के बेटे, उन्होंने इस चलन को पलट दिया। एनडीए ने उन पर हर संभव कोशिश की। फिर भी उन्होंने बड़ी जीत हासिल की।

तमाम बाधाओं के बावजूद हिंदू-बहुल सीट जीतना

रघुनाथपुर में लगभग 80% हिंदू मतदाता हैं। राजद के लिए यह चुनाव कठिन था। एनडीए के नेता उसे रोकने के लिए दौड़ पड़े। रैलियाँ, विज्ञापन, सब कुछ। लेकिन ओसामा डटा रहा। उसकी जीत ने कई लोगों को चौंका दिया। इसने साबित कर दिया कि सिर्फ़ नाम से जीत नहीं मिलती। जड़ें गहरी होती हैं।

ज़रा उस नज़ारे की कल्पना कीजिए। बड़े-बड़े नेता शहर में उमड़ पड़े हैं। फिर भी स्थानीय लोग अपने आदमी के साथ डटे हुए हैं। तूफ़ान के बीच ओसामा का शांत चेहरा। उस जीत ने परिवार के डर को पूरी तरह से पलट दिया।

ओसामा साहब की सफलता के कारणों को समझना

उन्हें क्या प्रेरित करता है? सबसे पहले, मज़बूत स्थानीय संबंध। वे सिर्फ़ भाषण नहीं, बल्कि सड़कों पर भी काम करते हैं। इसके अलावा, लोग उन्हें तीक्ष्ण बुद्धि और निष्पक्ष मानते हैं। शोरगुल भरी भीड़ में एक शिक्षित आवाज़। उनका धर्मनिरपेक्ष स्वभाव सीमाओं को लांघ जाता है। हिंदुओं ने अतीत को नहीं, बल्कि उस व्यक्ति को वोट दिया।

जमीनी स्तर पर मेहनत हर बार प्रचार पर भारी पड़ती है। एनडीए का प्रयास विफल रहा। ओसामा ने दिखाया कि परिवार की मेहनत को असली मेहनत के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है। सभी युवा नेताओं के लिए एक सबक।

विरासत में मिली राजनीति का संघर्ष: शिवानी शुक्ला की हार
शिवानी शुक्ला ने भारी बोझ उठाया। जेल में बंद दबंग मुन्ना शुक्ला की बेटी। लालगंज में उनकी दौड़ में आग और आँसू मिले थे। लेकिन अंत में हार का इंतज़ार था।

लालगंज में बाहुबली की विरासत

शिवानी ने ज़ोरदार शुरुआत की। भाषणों में अपने पिता के लिए रोईं। फिर धमकियों के साथ भी सख्त रुख अपनाया। कानून की छात्रा होने के नाते, इस खेल में नई-नई। उनके बोल्ड अंदाज़ को लेकर चर्चाएँ बनीं। लेकिन बाहुबली का साया भी छाया रहा। मतदाताओं ने परिवार के वज़न को तौला। भाजपा की उम्मीदवार ने उनके तेवरों को मात दे दी।

उसकी कहानी दिल को छू जाती है। एक लड़की अपने पिता के सम्मान के लिए लड़ती है। भीड़ शोर मचाती है, लेकिन मतपत्र ना कहते हैं। यह नरम चुनावों में कठिन विरासत के खतरों को उजागर करता है।

लालगंज मार्जिन विश्लेषण

भाजपा के संजय कुमार सिंह ने बढ़त बना ली। शिवानी कड़ी टक्कर में थीं, लेकिन हार गईं।

  • शिवानी शुक्ला: 95,483 वोट.
  • संजय कुमार सिंह (भाजपा): 127,650 वोट.
    हार का अंतर 32,167 वोटों का रहा। साफ़ हार। भाजपा की मशीन मज़बूत रही। शिवानी का जुनून इस अंतर को पाट नहीं सका। यह दर्शाता है कि गठबंधन, अकेले परिवार चलाने पर कैसे भारी पड़ता है।

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