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ARUNDHATI ROY: चौदह बरस बाद निशाने पर अरुंधति, विपक्ष की लगभग खामोशी!

लेखिका अरुंधति रॉय और शेख शौकत हुसैन के खिलाफ चौदह बरस बाद निशाना

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ARUNDHATI ROY: प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय और कश्मीर के एक पूर्व प्रोफेसर शेख शौकत हुसैन के खिलाफ दिल्ली के उप-राज्यपाल ने जिस मामले में मुकदमा चलाने के अनुमति दी है, वह 2010 में दिल्ली में हुए एक समारोह में दिये उनके भाषण से जुड़ा मामला है। आरोप है कि अरुंधति रॉय उस समारोह में कश्मीर के सवाल पर देश की आम धारणा के खिलाफ कुछ बोली थीं। उन्होंने जो भी कहा, उससे बहुतों को असहमति हो सकती है। उनके इस कथन से कि कश्मीर कभी भारत का अंग नहीं था, मैं भी सहमत नहीं हूं। मगर उस घटना के 14 साल बाद हुए यूएपीए जैसे कठोर (काले) कानून के तहत उन पर मुकदमा चलाने के फैसले का क्या औचित्य है, इसके पीछे क्या नीयत हो सकती है?

2010 के बाद 2014 तक केंद्र में यूपीए सरकार थी। माना जा सकता है- जैसा कि ये लोग कहते हैं- कि वह तुष्टीकरण की नीति पर चलती थी, कि कश्मीर के बारे में उसका स्टैंड साफ नहीं था या देशहित के खिलाफ था। इसी कारण सुश्री रॉय पर मुकदमा चलाने की मंजूरी उस समय के एलजी- जो केंद्र के अनुरूप ही काम करते हैं, ने नहीं दी। पर 2014 में तो देश में राष्ट्रवादी सरकार आ गई। 56 इंच का सीना और मजबूत इरादों वाला प्रधानमंत्री आ गया और ‘जूनियर’ लौह पुरुष गृहमंत्री हैं, तब सरकार ने इस मामले को क्यों ठंडे बस्ते में डाले रखा? कोई खास वजह तो होनी चाहिए‌। क्यों अचानक सरकार को लगा कि अरुंधति रॉय का बाहर रहना ठीक नहीं है या उनको सबक सिखाना जरूरी है!

गौरतलब है कि उन पर जिन धाराओं के तहत मुकदमा चलना है, उनमें समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने और देश में अराजकता फैलाने आदि आरोप हैं-कुल मिला कर राष्ट्रद्रोह‌।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि 5 साल पहले धारा 370 हटाई गई। सरकार का दावा है कि अब कश्मीर से आतंकवाद लगभग खत्म हो चुका है। शांति कायम है। कश्मीर में भी प्रगति और विकास की गंगा बह रही है! तब 14 साल पुराने मामले में कार्रवाई का क्या मतलब हो सकता है? यह दिखाना कि संख्या बल में कभी आने के बाद भी हमारे तेवर में कभी नहीं आई है, कि हम उसी तरह से एजेंसियों व कानूनों का दुरुपयोग करते रहेंगे, कि हम असहमति की आवाज को दबाते रहेंगे?

प्रसंगवश, इस बार पंजाब से अमृतपाल सिंह सांसद (निर्दलीय) निर्वाचित हुए हैं, जो खुल कर खालिस्तान अलग देश की मांग करते हैं। सांसद बनने के बाद के उनके इस तरह के साक्षात्कार वाले वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। अमृतपाल सिंह कहते हैं कि वे खुद को भारतीय नहीं मानते और अपनी मांग के शांतिपूर्ण आंदोलन करना अपना और सिख समाज का लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। अब वह अपनी बात संसद में बोलते नजर आएंगे। तो क्या उनके बोलने पर रोक लगा दी जायेगी? या उनको भी ‘राष्ट्रद्रोह’ के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जायेगा? अरुंधति रॉय की तुलना में तो वह कहीं अधिक ‘भड़काऊ’ बातें करते दिख रहे हैं।

एक जानकारी कि एलजी श्री सक्सेना गुजरात में सामाजिक गतिविधियों में लगे रहे हैं। एक एनजीओ से भी जुड़े रहे हैं। जाहिर है कि उसका घोषित उद्देश्य जनहित के काम करना रहा होगा। मगर जानकारों के मुताबिक वे नर्मदा आंदोलन के मुद्दे पर मेधा पाटकर के खिलाफ अभियान चलाते रहे।
सरदार सरोवर के निर्माण में हजारों लोग विस्थापन के शिकार हुए हैं। उनमें भी सबसे बड़ी संख्या में आदिवासी और दलित।‌ मगर उनके अधिकार की बात करना संभवतः उनको भी विकास विरोधी कृत्य लगता होगा!
2002 के गुजरात दंगों में तो इन्हें मानवाधिकारों का कोई हनन नहीं ही दिखा होगा! हालांकि इस मामले में श्री सक्सेना पर निशाना साथने का कोई मतलब नहीं है। यह निर्णय तो केंद्र का है। वैसे इस खबर में कहीं यह नहीं कहा गया कि केंद्र सरकार ने मुकदमा चलाने की अनुमति दी। यही कहा गया कि दिल्ली के एलजी ने अनुमति दी! ऐसे या किसी मामले में एलजी या राजपाल क्या अपने विवेक से निर्णय करते हैं? नहीं। तो राज्यपाल का कंधा और बहाना क्यों!

साक्षी जोशी के चैनल पर वाजिब सवाल

अरुंधति रॉय पर इतना सन्नाटा क्यों?

ऐसा नहीं है कि कोई नहीं बोल रहा, मगर मुख्य धारा के विपक्षी दलों के मुखर नेताओं की लगभग खामोशी अटपटी जरूर लगती है। अरुंधति राय या किसी के भी बेवजह उत्पीड़न के खिलाफ बोलने का मतलब उनके विचारों से सहमत होना नहीं होता। यह सीधे नागरिक के अधिकारों के पक्ष में खड़ा होना है।
वैसे कश्मीर पर खुले मन से चर्चा में करने में हर्ज नहीं है। सरकार लाख दावा करे, कश्मीर के हालात सामान्य हैं, यह मानने का कोई ठोस कारण नहीं है।

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इस मामले में सोशल मीडिया पर आयी कुछ प्रतिक्रिया :

अमिताव घोष : ‘अरुंधति रॉय का उत्पीड़न बिल्कुल अनुचित है। वह एक महान लेखिका हैं और उन्हें अपनी राय रखने का अधिकार है। एक दशक पहले कही गई उस बात के लिए उनके खिलाफ जो मामला लाया गया है, उस पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आक्रोश होना चाहिए।’

डॉ मीना कंदासामी : ‘…मैं आशा करती हूं कि अरुंधति रॉय जैसी प्रिय और प्रतिष्ठित व्यक्ति की इस तरह की आलोचना पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया के कारण मोदी शासन को पीछे हटना पड़ेगा।’

महुआ मोइत्रा (सांसद, तृणमूल कांग्रेस) : ‘अगर अरुंधति रॉय पर यूएपीए के तहत मुकदमा चला कर बीजेपी यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि वे वापस आ गए हैं, तो ऐसा नहीं है। और वे कभी भी वैसे वापस नहीं आएंगे जैसे वे थे। इस प्रकार का फासीवाद बिल्कुल वैसा ही है, जिसके खिलाफ भारतीयों ने वोट दिया है।’

राजदीप सरदेसाई (पत्रकार) : ‘दिल्ली एलजी ने यूएपीए के तहत 2010 के कथित नफरत भरे भाषण मामले में लेखक कार्यकर्ता अरुंधति रॉय के खिलाफ अभियोजन की मंजूरी दे दी है। जो लोग नियमित रूप से चुनाव के समय धार्मिक जहर उगलते हैं, वे बच जाएंगे और असहमति की अग्रणी आवाज को ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार दिया जाएगा! ऐसे दिनों में, हम और अधिक गणतंत्र की तरह दिखाई देते हैं!’

जो भी हो, विपक्ष के शीर्ष नेताओं को इस मुद्दे पर अपना पक्ष खुल कर रखना ही चाहिए। चुप्पी का मतलब तो यही निकलेगा कि आप सरकार के इस कदम को गलत नहीं मानते!

अंत में : कुछ दिन बाद ही 26 जून को देश में इमरजेंसी को याद करने का सालाना कर्मकांड होगा। उसमें सत्ता पक्ष कांग्रेस और इंदिरा गांधी के उस दागदार अतीत को याद करते हुए लोकतंत्र के प्रति अपनी निष्ठा का डंका पीटेगा!
यह और बात है कि जनता का बड़ा हिस्सा अब इस पाखंड को समझने लगा है। ’24 के जनादेश में भी यह संदेश मुखरित हुआ है। मगर ‘मजबूत इरादे’ वालों का संकल्प है कि
हम नहीं सुधरेंगे!

  • श्रीनिवास (Srinivash), वरिष्ठ पत्रकार

(श्रीनिवास, रांची प्रभात खबर के संपादन से जुड़कर अवकाश प्राप्ति तक यहीं थे और पत्रकारिता का धर्म जारी रखा। आज रांची में रहते हैं। श्रीनिवास इमरजेंसी काल तक जेल में थे और बिहार आंदोलन के सेनानियों में से हैं और इन्हें जेपी सेनानी सम्मान और पेंशन मिलती है।)

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