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Bihar Elections 2025: राहुल गांधी का SIR मुद्दा और नीतीश कुमार की चुप्पी
बिहार में विधानसभा चुनावों 2025 (Bihar Elections 2025) की तैयारियाँ शुरू होते ही राजनीतिक गहमागहमी शुरू हो गई है। इस गरमागरम माहौल के बीच, राहुल गांधी का हालिया ‘SIR’ वाला मुद्दा और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चुप्पी चर्चा का केंद्र बन गई है। हम बिहार में जनता का मूड भांपने और यह समझने के लिए मौजूद हैं कि ये घटनाक्रम चुनावी माहौल को कैसे प्रभावित कर रहे हैं।
Bihar Elections 2025 में SIR मुद्दा: एक संभावित मास्टरस्ट्रोक?
राहुल गांधी और इंडिया अलायंस ने बिहार चुनाव प्रचार में ‘SIR’ मुद्दे को प्रमुखता से उठाया है। इससे इसके संभावित असर को लेकर काफ़ी बहस छिड़ गई है। क्या यह इंडिया अलायंस का एक रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक है, या यह एक ऐसा मुद्दा है जो बिहार के आम मतदाता को समझ नहीं आ रहा है?
ज़मीनी हकीकत:
बिहार से शुरू हुई राहुल गांधी की मतदाता अधिकार यात्रा का भारत गठबंधन की आंतरिक गतिशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इस यात्रा ने उन नेताओं के बीच एकता की भावना को बढ़ावा दिया है जो पहले एक-दूसरे के विरोधी थे। यह नई एकजुटता आगामी चुनावों में एक महत्वपूर्ण कारक साबित हो सकती है।
राहुल गांधी का मतदाता अधिकार मार्च: प्रभाव और प्रतिध्वनि
राहुल गांधी के नेतृत्व में मतदाता अधिकार मार्च ने गंभीर मुद्दों को उजागर किया है, खासकर बिहार में मतदाता सूचियों की अखंडता से संबंधित। इस पहल ने न केवल विशिष्ट शिकायतों को उजागर किया है, बल्कि इंडिया अलायंस को मज़बूत करने में भी भूमिका निभाई है।
मतदाता सूची की अनियमितताओं का समाधान
जनता से हमारी बातचीत के दौरान एक आम शिकायत सामने आती है कि मतदाता संबंधी मामलों के लिए उचित रसीदें नहीं मिलतीं। इससे भी ज़्यादा चिंताजनक है घोर अनियमितताओं की खबरें, जैसे जीवित लोगों को मृत घोषित कर दिया जाना और बाद में उनके नाम मतदाता सूची से हटा दिए जाना। उदाहरण के लिए, राजद सांसद सुधाकर सिंह ने बताया कि रोहतास के चेनारी में – वही ज़िला जहाँ से इंडिया अलायंस का मार्च शुरू हुआ था – दर्जनों लोगों को गलत तरीके से मृतक बता दिया गया, जिससे उन्हें मताधिकार से वंचित होना पड़ा।
भारत गठबंधन को मजबूत करना
ऐसा लगता है कि राहुल गांधी का मार्च भारत गठबंधन के लिए एक शक्तिशाली एकीकरण बल का काम कर रहा है। इससे पहले, पप्पू यादव और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं के बीच तनावपूर्ण संबंध थे, यहाँ तक कि पप्पू यादव ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व की भी आलोचना की थी। हालाँकि, मार्च के दौरान, पप्पू यादव ने सार्वजनिक रूप से तेजस्वी यादव को बिहार की आशा बताया, जिससे संभावित सुलह का संकेत मिला। इसी तरह, तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार के बीच की दरार कम होती दिख रही है, और खबरें आ रही हैं कि कन्हैया कुमार को अब गठबंधन में ज़्यादा ज़िम्मेदारी मिल रही है।
कांग्रेस का बिहार पर नया फोकस
ऐसा लगता है कि कांग्रेस पार्टी इस बार बिहार चुनावों पर काफ़ी ज़ोर दे रही है। राहुल गांधी ने राज्य के कई दौरे किए हैं, जो पिछले चुनाव चक्रों से कहीं ज़्यादा है। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी दोनों की रैलियों और सार्वजनिक कार्यक्रमों में सक्रिय रूप से उपस्थिति, कांग्रेस द्वारा व्यापक प्रभाव डालने के लिए किए गए समर्पित प्रयासों का संकेत देती है।
नीतीश कुमार की चुप्पी की पहेली
बिहार के मौजूदा चुनाव प्रचार का एक ख़ास पहलू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कम सक्रिय होना है। चुनाव प्रचार में उनकी हमेशा की तरह सक्रिय भागीदारी नदारद दिख रही है, जिससे कई लोग उनकी रणनीतिक चुप्पी के पीछे के कारणों पर सवाल उठा रहे हैं।
नीतीश कुमार की रणनीतिक अनुपस्थिति
पिछले चुनावों में, नीतीश कुमार एक प्रमुख और मुखर प्रचारक रहे थे, और अक्सर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ तीखी बहस करते रहे थे। 2015 के चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनके तीखे जवाब और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ, जिनमें प्रधानमंत्री के बिहार दौरों का मज़ाक उड़ाने वाली एक कविता भी शामिल है, आज भी याद की जाती हैं। उनकी वर्तमान खामोशी उनकी पहले की मुखर प्रचार शैली के बिल्कुल विपरीत है।
गायब होने के संभावित कारण
नीतीश कुमार की कमज़ोर उपस्थिति को कई सिद्धांत समझाने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ का कहना है कि यह भाजपा द्वारा सोची-समझी रणनीति हो सकती है ताकि वह अपनी बात मनवा सके या फिर लंबे कार्यकाल में स्वाभाविक रूप से बनने वाली सत्ता विरोधी भावना से उन्हें दूर रखने की कोशिश हो सकती है। कुछ अन्य लोगों का अनुमान है कि स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ भी एक कारण हो सकती हैं, हालाँकि विपक्ष अक्सर इसका इस्तेमाल उनकी प्रभावी शासन क्षमता पर सवाल उठाने के लिए करता है। जैसा कि एक पर्यवेक्षक ने कहा, चुनाव का “चेहरा” ही “फ्रेम” से गायब हो गया लगता है।
नीतीश कुमार की चुप्पी का एनडीए पर असर
चुनाव प्रचार अभियान से नीतीश कुमार की अनुपस्थिति बिहार में एनडीए की चुनावी संभावनाओं पर असर डाल सकती है। उनके सक्रिय नेतृत्व और जनता से जुड़ाव के बिना, गठबंधन को मतदाताओं को प्रभावी ढंग से एकजुट करने में कठिनाई हो सकती है। यह शून्यता अनजाने में इंडिया अलायंस को फ़ायदा पहुँचा सकती है, जिससे उन्हें विपक्ष की उपस्थिति का फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिल सकता है।
चिराग पासवान की मुखरता
चिराग पासवान ने नीतीश कुमार के नेतृत्व की, खासकर बिहार में कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर, आलोचना की है। उन्होंने खुले तौर पर उस सरकार का समर्थन करने पर खेद व्यक्त किया है जो उनके अनुसार इन गंभीर चिंताओं को दूर करने में विफल रही है। इस सार्वजनिक आलोचना ने निस्संदेह नीतीश कुमार को गठबंधन के भीतर असहज कर दिया है।
बिहार की राजनीति में “वन-मैन आर्मी” मिथक
बिहार के राजनीतिक परिदृश्य ने दिखा दिया है कि स्वतंत्र राजनीतिक राह अक्सर कठिन होती है। पप्पू यादव और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं को अकेले चुनाव लड़ने में सीमित सफलता मिली है। पप्पू यादव ने अंततः अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया, और उपेंद्र कुशवाहा ने भी गठबंधन और पार्टी विलय के रास्ते निकाले हैं। चिराग पासवान का अपना उपचुनावों का अनुभव, जहाँ उनकी पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने पर अपनी ज़मानत ज़ब्त कर ली थी, राज्य में मज़बूत गठबंधनों की ज़रूरत को रेखांकित करता है।
“आंतरिक तोड़फोड़” का भूत
बिहार में राजनीतिक गठबंधनों के भीतर “आंतरिक तोड़फोड़” या “भितरघात” का मुद्दा लगातार चिंता का विषय बना हुआ है। इसका एक ज्वलंत उदाहरण काराकाट लोकसभा सीट पर उपेंद्र कुशवाहा की हार है। आरोप लगे कि कुछ भाजपा नेताओं ने पवन सिंह को प्रतिद्वंदी उम्मीदवार बनाकर उनके खिलाफ सक्रिय रूप से काम किया, जिससे कुशवाहा की हार हुई।
आर्थिक वादे और सार्वजनिक विश्वास
सरकारी योजनाओं और चुनावी वादों का जनभावना पर गहरा असर पड़ता है। झारखंड विधानसभा चुनावों से तुलना करें, जहाँ हेमंत सोरेन की “माँ बहिन मान योजना” को काफ़ी समर्थन मिला था, तो यह साफ़ है कि कल्याणकारी कार्यक्रम वोटों को प्रभावित कर सकते हैं। यहाँ तक कि जब मतदाताओं ने स्थानीय नेताओं से असंतोष व्यक्त किया, तब भी ऐसी योजनाओं के कथित लाभों ने सत्तारूढ़ गठबंधन को समर्थन दिया। बिहार में, तेजस्वी यादव के वादों पर काफ़ी भरोसा है, जो दर्शाता है कि उनके एजेंडे को अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है।
सत्ता विरोधी लहर
लगभग 17-19 वर्षों तक मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार का लंबा कार्यकाल स्वाभाविक रूप से सत्ता-विरोधी लहर लेकर आता है। यह भावना, जो विभिन्न राज्यों की राजनीति में आम है, मतदाताओं में बदलाव की चाहत पैदा करती है। विपक्ष इस कारक का अपने लाभ के लिए लाभ उठा सकता है, जिससे नए नेतृत्व की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जा सकता है।
मुख्य वादे: मुफ़्त बिजली और भी बहुत कुछ
इंडिया अलायंस ने मुफ़्त बिजली और “माँ बहिन मान योजना” जैसी पहलों सहित कई आकर्षक चुनावी वादे किए हैं। इसके जवाब में, एनडीए ने हाल ही में 125 यूनिट तक मुफ़्त बिजली देने की घोषणा की है। हालाँकि इस कदम से सत्तारूढ़ दल को कुछ फ़ायदा हो सकता है, लेकिन मतदाता मतदान करने से पहले इन वादों की विश्वसनीयता और व्यावहारिकता की जाँच ज़रूर करेंगे।
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