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Bihar सीट बंटवारे की गुत्थी: BJP की दिक्कतें और Nitish के विधायक Tejashwi के संपर्क में?

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बिहार (Bihar) में चुनाव पास आते ही सियासत गरमा गई है। सबसे बड़े सवाल दो हैं, सीट शेयरिंग कैसे होगी और किसके साथ कौन खड़ा होगा। भाजपा (BJP) चुनावी प्लान बनाना चाहती है, पर सहयोगी दलों की मांगें कम होने का नाम नहीं ले रहीं। ऊपर से खबरें यह भी कि नीतीश कुमार के कुछ विधायक तेजस्वी यादव के संपर्क में हैं। ऐसे माहौल में सत्ता का रास्ता सीधा नहीं दिख रहा, बल्कि हर कदम पर नई रुकावट सामने आ रही है।

Bihar सीट बंटवारे की गुत्थी:

भाजपा के सामने एक नहीं, कई मुश्किलें हैं। चुनाव की तैयारियां, सहयोगियों को साधना और जनता का मूड, सब एक साथ लड़खड़ा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह बिहार में लगातार बैठकों और दौरों में व्यस्त हैं, कई दौर की रणनीति मीटिंग्स हो चुकी हैं। फिर भी कोई ठोस ब्रेकथ्रू नहीं दिखा।

समस्या की धुरी वहीं आकर टिकती है, सहयोगी पीछे नहीं हट रहे। जैसा कि बार-बार कहा जा रहा है, “सहयोगी दल मानने को तैयार नहीं”। शुरुआत में जो प्रयास हुए, वे भी नतीजा नहीं दे पाए।

  • नेताओं के साथ अलग-अलग बैठकें
  • रणनीति पर मंथन और फॉर्मूला बनाने की कोशिश
  • दिल्ली और पटना, दोनों जगह समन्वय बैठकें

चिराग पासवान की 40 सीटों पर ठनी बात

लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के प्रमुख चिराग पासवान 40 सीटों की मांग पर अड़े हुए हैं। कोई कटौती, कोई विकल्प, कुछ भी मंजूर नहीं। पार्टी के भीतर से भी संदेश यही कि यह संख्या कम नहीं होगी। परिवार के सदस्य और करीबी, अरुण भारती, कई बार संकेत दे चुके हैं कि चिराग को मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जाना चाहिए।

यह रुख भाजपा के लिए दो तरीकों से मुश्किल खड़ी करता है।

  1. सीट शेयरिंग का गणित फंस जाता है, गठबंधन में जगह ही नहीं बचती।
  2. दबाव बढ़ता है, क्योंकि चिराग की सख्ती बाकी सहयोगियों को भी और कड़ा बनाती है।

जीतन राम मांझी की शर्त और चेतावनी

हम, यानी जीतन राम मांझी की पार्टी, 20 सीटों से नीचे तैयार नहीं। यह संदेश मीटिंग्स में भी दोहराया गया और मंच से भी। मांझी ने एक सार्वजनिक वादा किया, जिसने चर्चा और तेज कर दी।

यह सिर्फ शर्त नहीं, एक चुनावी ऑफर है। साथ में चेतावनी भी स्पष्ट है, अगर 20 से कम सीटें मिलीं, तो पार्टी 100 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेगी। यह संकेत किसी भी गठबंधन में भूचाल ला सकता है, क्योंकि 100 सीटों पर अलग उम्मीदवार उतरना मतलब सीधा मुकाबला, वोट कटने का खतरा, और समूचे फॉर्मूले का बिखरना।

उपेंद्र कुशवाहा की 12 से 15 सीटों की मांग

आरएलएसपी से आगे बढ़कर अलग पहचान बनाने की कोशिश में रहे उपेंद्र कुशवाहा 12 से 15 सीटों पर खुद को दावेदार मानते हैं। संदेश भी पुराना लेकिन धारदार, हम तो डूबेंगे तो तुमको भी ले डूबेंगे। यह लाइन बिहार की राजनीति में कई बार सुनी गई है और इसका मतलब साफ है, कम पर समझौता नहीं, और दबाव की राजनीति जारी रहेगी।

  • यह रुख बताता है कि कुशवाहा भी बैकफुट पर जाने को तैयार नहीं।
  • सीटों की संख्या पर लचीलापन न होने से फॉर्मूले की जमीन और सिकुड़ती है।

धर्मेंद्र प्रधान का पटना मिशन

स्थिति बिगड़ती दिखी, तो भाजपा ने संगठन के भरोसेमंद चेहरे धर्मेंद्र प्रधान को मैदान में उतारा। वे बिहार के प्रभारी भी हैं। प्लान साफ था, एक-एक सहयोगी से जाकर बात, मनाना, समाधान निकालना। वे पहले जीतन राम मांझी के घर गए। बैठक मुश्किल से 15 मिनट चली। नतीजा, शर्त वही कि 20 से कम नहीं। साथ में यह भी साफ संकेत कि कम मिला, तो 100 सीटों पर उतरने का फैसला तय मानिए।

इसके बाद धर्मेंद्र प्रधान उपेंद्र कुशवाहा के आवास पर गए। लंबी बात, फिर भी निष्कर्ष शून्य, मांग जस की तस। कोशिशें जारी हैं, पर सहमति नहीं बन पा रही।

घर-घर बैठकें, फिर भी गतिरोध

धर्मेंद्र प्रधान के साथ विनोद तावड़े और दूसरे नेता भी लगातार बैठकों में लगे हैं। कभी नेताओं के घर पर, कभी पार्टी ऑफिस में, कभी अलग से एक-एक करके। लक्ष्य एक ही, किसी तरह सीट शेयरिंग पर सहमति बन जाए। लेकिन अभी तक जो तस्वीर है, उसमें बात आगे नहीं बढ़ी।

सीट शेयरिंग का नामुमकिन गणित

बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं। चर्चाओं में यह सामने आया कि भाजपा 100 सीटों पर लड़ना चाहती है और नीतीश कुमार की पार्टी 101 सीटों पर। यह कुल मिलाकर 201 सीटें हो जाती हैं। अब बचीं 42 सीटें, जिनमें चिराग की 40 सीट की मांग, मांझी की 20 सीट की शर्त, और कुशवाहा की 12 से 15 सीट की चाह शामिल है। साफ है, यह समीकरण कहीं से फिट नहीं बैठता, असंभव है, नामुमकिन है।

असल चुनौती विपक्ष नहीं, अपने साथी

आज की तारीख में भाजपा के लिए चुनौती सिर्फ तेजस्वी यादव, राहुल गांधी या प्रशांत किशोर नहीं हैं। चुनौती उससे भी बड़ी अपने सहयोगी हैं, जो सीटों पर अड़े हैं, और समझौते की जमीन तैयार नहीं होने दे रहे। वीडियो शीर्षक के संदर्भ में यह आशंका बढ़ी है कि जैसे ही सीट शेयरिंग की आधिकारिक घोषणा होगी, भगदड़ मच सकती है। खासकर तब, जब जेडीयू के कुछ विधायक तेजस्वी के संपर्क में बताए जा रहे हैं। यह स्थिति भाजपा के लिए दोहरी मुश्किल बनाती है, एक तरफ गठबंधन के भीतर खींचातानी, दूसरी तरफ विपक्ष को मिल रही अप्रत्यक्ष मजबूती।

यह वही भाव है जिसे लोग इस तरह समझ रहे हैं, वास्तविक बड़ी चुनौती अपने सहयोगी ही हैं।

जनता का मूड और विधायकों की बेचैनी

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लेकर जनता में असंतोष की बातें खूब सुनाई दे रही हैं। इसी बीच, खबरें कि जेडीयू के कुछ विधायक तेजस्वी यादव के कैंप से संपर्क में हैं, माहौल और अनिश्चित बना देती हैं। यह संकेत है कि जमीन पर हवा बदली हुई दिख रही है, जिसका असर सीट शेयरिंग और उम्मीदवार चुनने पर सीधा पड़ता है।

भाजपा की तिहरी दुविधा

नीतीश के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ना है, जबकि उन पर जनता का गुस्सा बताया जा रहा है।
अपने कुछ विधायकों के टिकट काटने पड़ सकते हैं, जो खुद में जोखिम है।
सहयोगी दल, जैसे चिराग, मांझी और कुशवाहा, अपनी-अपनी शर्तों से टस से मस नहीं।
यही वजह है कि बिहार चुनाव एक तरह की खिचड़ी बन चुका है। हर मसाले की मात्रा अलग, और पकने की आग भी असमान। ऐसे में सत्ता का सपना पिसता हुआ नजर आता है, जब तक कोई संतुलित फॉर्मूला सामने न आ जाए।

मैदान में कौन, किस तरह दबाव बना रहा है

गठबंधन राजनीति में दबाव बनाना एक रणनीति होती है, और तीनों प्रमुख सहयोगी यही कर रहे हैं। चिराग पासवान ने संख्या तय कर दी, इससे बातचीत की गुंजाइश कम रह जाती है। मांझी ने पब्लिक वादा कर दिया, इससे बैकफुट पर जाना मुश्किल हो जाता है। कुशवाहा ने पुरानी लाइन दोहराई, इससे संकेत गया कि वे वोट ट्रांसफर की कुंजी को अपने पास मानते हैं।

भाजपा के लिए यहां समय सबसे बड़ी चुनौती है। चुनाव नजदीक आए, तो उम्मीदवारों की घोषणा, क्षेत्रवार समीकरण, और बूथ लेवल प्रबंधन तय करना पड़ता है। सीट बंटवारे पर देरी का सीधा असर ग्राउंड कैंपेन पर पड़ता है।

क्या वाकई भगदड़ मच सकती है

सीट शेयरिंग होते ही असंतोष उभरना तय है। जिनको उम्मीद से कम मिलेगा, वे बगावत की राह पकड़ सकते हैं। बिहार में यह नया नहीं है। अगर जेडीयू के विधायक तेजस्वी के संपर्क में हैं, तो सीटों की घोषणा के बाद यह सिलसिला तेज हो सकता है। भाजपा के लिए यह डोमिनो इफेक्ट जैसा होगा, एक हलचल कई और हलचलों को जन्म दे सकती है।

यहीं पर संवाद और भरोसा काम आता है, जो इस वक्त कमजोर दिख रहा है। अगर सहयोगियों को संतुष्ट करने का कोई साझा फॉर्मूला निकला, तब स्थिति संभल सकती है। अन्यथा नुकसान सभी को होगा, विपक्ष को छोड़कर।

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