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एक युग का Shibu Soren के साथ अंत हुआ

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इस लेख के लेखक – दीपक रंजीत, जेएनयू से अपनी पढ़ाई पूरा करने के बाद झारखंड में काम कर रहे, दीपक रंजीत झारखंड आंदोलन के नए दौर के प्रहरी,  साथ-साथ कोलम लेखक

भारत की आज़ादी के बाद भी झारखंड की आत्मा को उसका सम्मान, हक और पहचान नहीं मिला। यह लड़ाई दशकों तक चली — गाँव, जंगल, खदान और राजधानी तक। इसी आंदोलन को नई दिशा दी शिबू सोरेन ने। 1975 से वे झारखंड आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरा बने। वे उस पीढ़ी के अंतिम बड़े नायक थे — जिसने संघर्ष से सत्ता तक का सफ़र तय किया।

राजनीतिक यात्रा की शुरुआत

उनकी राजनीतिक शुरुआत किसी पद या पार्टी से नहीं, बल्कि एक व्यक्तिगत आघात से हुई। जब साहूकारों ने उनके पिता की हत्या कर दी — तो 18 वर्षीय शिबू विद्रोही बन गए। वो निकल पड़े शोषण, जमींदारी और साहूकारी के खिलाफ़। झारखंड के गाँवों में उन्होंने आदिवासियों और वंचितों को संगठित किया, और आंदोलन की चेतना को जन-जन तक पहुँचाया।

झारखंड आंदोलन में साझेदारी

साल 1972 में A.K. राय और विनोद बिहारी महतो के साथ उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की। संथाल, कुड़मी और अन्य समुदायों के सहयोग से झारखंड आंदोलन एक साझा स्वरूप में आगे बढ़ा। इसी साझी भावना के तहत, निर्मल महतो को JMM का अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन 1987 में उनकी हत्या के बाद शिबू सोरेन अध्यक्ष बने — और फिर 39 वर्षों तक इस पद पर रहे।

राजनीतिक मुकाम

साल 2000 में जब झारखंड बिहार से अलग हुआ, तो शिबू सोरेन तीन बार मुख्यमंत्री बने — पहली बार सिर्फ 10 दिन, और फिर दो बार 6-6 महीने। 8 बार लोकसभा सांसद बने, 3 बार हारे भी — लेकिन हमेशा आदिवासी आवाज़ का प्रतीक बने रहे। 15 अप्रैल 2025 को उन्होंने JMM की कमान अपने पुत्र हेमंत सोरेन को सौंप दी।

झारखंड की बदलती राजनीति और चुनौतियाँ

हेमंत सोरेन आज झारखंड के तीसरी बार मुख्यमंत्री हैं। लेकिन आज का झारखंड वो नहीं है,

जिसके लिए आंदोलन शुरू हुआ था। समाज में अब पहचान की खींचतान है — कुड़मी, पिछड़े और आदिवासी समुदायों के बीच दरारें गहराने लगी हैं। ऐसे विघटन के दौर में शिबू सोरेन एक मौन पर्यवेक्षक की भूमिका में थे — चुपचाप देखते हुए, लेकिन सब समझते हुए।

न्याय बनाम विकास

जब बाबूलाल मरांडी के कार्यकाल में भूमि अधिग्रहण योजनाओं ने रफ्तार पकड़ी — तो शिबू सोरेन की उपस्थिति एक संतुलन बनी रही। उन्होंने कभी खुलकर पूंजीवाद का समर्थन नहीं किया, लेकिन सत्ता में रहते हुए भी आदिवासियों के हितों को पूरी तरह कुचले जाने से बचाया।

अंतिम अध्याय

Dishom Guru ने अपना अंतिम महीना गंगाराम अस्पताल, नई दिल्ली में बिताया। एक महीने के लंबे संघर्ष के बाद 5 अगस्त 2025 को उन्होंने अंतिम साँस ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू दोनों ने जाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।

एक युग का अंत Shibu Soren के साथ हुआ

विश्व आदिवासी दिवस से ठीक 5 दिन पहले, झारखंड ने अपना Dishom Guru खो दिया। उनकी भूमिका अब इतिहास का हिस्सा है — लेकिन सवाल अब भी ज़िंदा है: क्या झारखंड उस आंदोलन की आत्मा को याद रख पाएगा? क्या आज की पीढ़ी समझ पाएगी कि सत्ता से ज़्यादा ज़रूरी होती है माटी की रक्षा?

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