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Election Commission: चौकीदार या ‘चुप्पा’? चुनावी धोखाधड़ी की असलियत; अफवाह है या कुछ गड़बड़ है?

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भारत का लोकतंत्र वैसे तो बड़ा मज़बूत दिखता है, लेकिन अबकी बार चुनावों के दौरान जितना बवाल मचा है, उतना पहले कम ही देखा गया। राहुल गांधी ने तो सीधा-सीधा बोल दिया कि चुनाव आयोग अपनी औकात खो रहा है और चुनावी धांधलियां हो सकती हैं। ये कोई चाय की दुकान वाली गप्प नहीं है, ये तो सीधा देश के करोड़ों वोटरों की उम्मीदों पर पानी फेर देने जैसा है। अब असल सवाल ये है कि ये सब बस सियासी ड्रामा है या वाकई कुछ गड़बड़ है?

Election Commission: चौकीदार या ‘चुप्पा’?

कागज़ पर तो चुनाव आयोग ही असली बॉस है। सबको भरोसा दिलाना, निष्पक्ष वोटिंग कराना, और ये पक्का करना कि हर बंदे की आवाज़ गिनी जाए। लेकिन, जब उसी आयोग पर नेता उंगली उठाने लगें, तो शक तो होना लाज़मी है। विपक्षी लोग बार-बार बोलते हैं – “ये सब सेटिंग है, भाई!”। फर्जी वोटर जोड़ना, असली नाम काटना, पारदर्शिता का कबाड़ा – ये सब बातें अब आम हो गई हैं।

जनता का भरोसा: एक बार गया तो गया

जब जनता को लगने लगे कि वोटिंग में ही खेल हो रहा है, तो वोट देने कौन जाएगा? ‘क्या फर्क पड़ता है, आखिर में जीतता तो वही है’ – यही सोच बन जाती है। और जब भरोसा डोलता है, तो लोकतंत्र की इमारत हिलने लगती है। फिर चाहे कोई लाख पारदर्शिता की बात करे, लोग बोलेंगे—’पहले सब ठीक करो, फिर देखेंगे’।

सबूत? हाँ, थोड़ा-बहुत तो है

मतलब, ऐसा नहीं है कि सब बातें हवा में हैं। कर्नाटक में जो हुआ, सबने देखा—हजारों फर्जी नाम लिस्ट में, असली वोटरों के नाम गायब। जिनकी उम्र 45-65 साल, वही सबसे ज्यादा कटे। और ये सब महज़ इत्तेफाक है? ज़्यादा दिमाग लगाने की ज़रूरत नहीं, भाई। जहाँ सियासत है, वहाँ सेटिंग भी है।

ईवीएम: मशीन है, कोई भगवान नहीं

अब बात आती है ईवीएम की। कुछ लोग मानते हैं—’मशीन है, गड़बड़ हो सकती है’। कुछ लोग कहते हैं – ‘नहीं, ये एक्स्ट्रा सेफ है’। लेकिन, सच्चाई ये है कि अब तक कोई पक्का सबूत सामने नहीं आया कि मशीनें हैक हुईं। फिर भी, शक का कीड़ा कुलबुलाता रहता है। और जब शक एक बार दिल में बैठ जाए, तो फिर बहस बंद नहीं होती।

खास समुदायों के टारगेट होने का खेल

ये बात भी दबे-छुपे नहीं रही कि वोटिंग की गड़बड़ियों में सबसे ज्यादा नुकसान अल्पसंख्यकों, गरीबों, या हाशिए पर खड़े लोगों को ही होता है। बिहार, महाराष्ट्र, हरियाणा – हर जगह आरोप वही: सत्ता वालों की सेटिंग। आखिर मकसद यही तो है कि अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जिताओ, बाकी सबको साइड में करो।

मीडिया और ‘गोदी मीडिया’ का रोल

अब मीडिया की बात करें – कुछ चैनल तो हैं ही सत्ता के चमचे। फेक न्यूज, घुमा-फिराकर खबरें, विरोधियों को बदनाम करना – मतलब कुछ भी चला दो, TRP चाहिए बस। ऐसे में जनता को सच जानना मुश्किल हो जाता है। ‘गोदी मीडिया’ की भूतिया कहानियों से वोटर और कन्फ्यूज हो जाता है।

फर्जी वोटर, फर्जी लिस्ट: सब सेटिंग का हिस्सा?

विपक्ष का कहना है कि चुनावी गड़बड़ियों में प्रशासन भी मिला हुआ है। फर्जी वोटर जोड़ना, असली हटाना – ये काम रातों-रात हो जाता है। खासकर बड़े राज्यों में चुनाव के वक्त ये गड़बड़ी हर बार उठती है। और जब नतीजे आते हैं, तो हारे हुए नेता बोलते हैं – ‘देखा, कहा था ना!’

दंगों और साजिशों की दवा

कुछ लोग तो ये भी कहते हैं कि चुनाव जीतने के लिए दंगे करवाए जाते हैं, खासकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ। मतलब, मुद्दा भटकाओ, माहौल गरमाओ, वोट पोलराइज करो – फिर अपना काम बनाओ। ये सब सियासी चालें हैं, जिनका असली नुकसान आम लोगों को ही होता है।

तो आखिर में, सच क्या है? शायद पूरी सच्चाई किसी को न पता हो, लेकिन इतना जरूर है कि चुनावी सिस्टम से विश्वास कुछ तो हिल चुका है। और जब तक ये भरोसा दोबारा नहीं बनता, तब तक लोकतंत्र का तमाशा चलता रहेगा।

बैठकें, गठबंधन-वठबंधन

रिपोर्ट्स में तो यही आता रहता है कि आरएसएस या भाजपा वाले, या इनके जैसे लोग, चुनाव जीतने के लिए मठों-मस्जिदों के बाबाओं से दोस्ती जमाते हैं। कभी मस्जिद के अंदर चाय-समोसे के साथ मीटिंग, कभी किसी धार्मिक सेंटर में गुपचुप चर्चा – कुछ भी हो सकता है। इनमें क्या बातें होती हैं? भाई, वोटर को कैसे पटाया जाए, कौन सी जाति या धर्म को साधा जाए, या फिर कौन सा मुद्दा उठा के लोगों को भड़काया जाए – यही सब जुगाड़बाजी चलती है। सीधा सा फंडा है, धर्म-जाति की राजनीति से फायदा उठाओ।

समाज और लोकतंत्र की बैंड

अब इसका असर क्या होता है? सीधी बात है – लोगों में फूट पड़ती है। नफ़रत और शक वाली हवा बहने लगती है। असली मुद्दे – जैसे नौकरी, अस्पताल, स्कूल – ये सब गायब। टीवी डिबेट्स में भी वही मंदिर-मस्जिद, वही घिसीपिटी बहसें। और असली ज़िंदगी में? भाई, समाज की चूलें हिलती हैं। लोकतंत्र का असली मज़ा तो तब है जब लोग एकजुट हों, न कि एक-दूसरे की टांग खींचते रहें।

चुनावी धांधली, सुरक्षा-वुरक्षा और बाकी तमाशा

अब आते हैं दूसरी तरफ। कुछ नेता हर चुनाव में चिल्ला-चिल्ला के कहते हैं, “विदेशी ताकतें घुस आईं, लोकतंत्र खतरे में!” 2006 मुंबई ब्लास्ट को भी घसीट लाते हैं – देखो, सबूत है! अब कौन जाने कितना सच है, कितना ड्रामा। पर ये डर दिखा के माहौल गर्म रखते हैं। लास्ट में सबको लगता है, देश का लोकतंत्र कोई कुर्सी है, जिसे कोई भी उठा ले जाएगा।

अदालतें भी कभी-कभी घोटाले में फँस जाती हैं। कोई आरोपी सबूत न मिलने पर छूट जाता है – फिर लोग पूछते हैं, असली घुसपैठ आखिर पकड़ कौन रहा है? या फिर जांच बस दिखावा है?

क्या कर सकते हैं?

मतलब, अगर सच में सुधार चाहिए, तो चुनावी सिस्टम को टाइट करो। वोटर लिस्ट को दुरुस्त रखो, गड़बड़ी पकड़ो, टेक्नोलॉजी भरोसेमंद बनाओ। फर्जीवाड़ा पकड़ने के लिए निगरानी सही रखो। वरना फिर से वही “चुनाव बेईमानी से जीता गया” वाला शोर सुनना पड़ेगा।

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