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Indian Politics: संसद ठप, ड्रामे के पीछे की असली तस्वीर!
भारत की राजनीति (Indian Politics)?
इस वक्त तो पूरी स्क्रिप्ट ही सस्पेंस थ्रिलर जैसी हो गई है। संसद में रोज़ नया ड्रामा, विपक्ष के नाम पर एकता की बातें लेकिन अंदर ही अंदर सब अलग-अलग गोटियां फिट कर रहे हैं। और ऊपर से इंटरनेशनल पॉलिटिक्स – मतलब, पीएम विदेश घूम रहे हैं, उधर संसद में ताले लटक रहे हैं। क्या बोले, मज़ा आ रहा है देख के, पर आम जनता की हालत वही ढाक के तीन पात।
अब देखो, मुद्दों की लाइन लगी है। संसद बंद, पीएम विदेश में, विपक्ष चिल्ला रहा है – “ये क्या हो रहा है भैया?” सरकार भी कम नहीं, कभी ‘सिंदूर ऑपरेशन’ तो कभी वोटर लिस्ट वाले खेल। हर कोई अपनी स्क्रिप्ट लिख रहा है। चुनावी मौसम है, तो हर बयान में छुपा एजेंडा मिल जाएगा।
राहुल गांधी की इमेज? अब उसमें थोड़ा दम दिखने लगा है, इंडिया गठबंधन की हवा भी बन चुकी है। लोग पूछ रहे हैं – “ये चलेगा कितने दिन?” वैसे, राजनीति में ट्रेलर बहुत आते हैं, पूरी फिल्म कम ही दिखती है। जनता देख रही है, मगर भरोसा कब टूट जाए, कह नहीं सकते।
संसद में हंगामा तो अब न्यू नॉर्मल है। पीएम का गैरहाज़िर रहना, धनकड़ कांड, और विपक्ष की रोज़ नई डिमांड – इन सबमें असली काम कब होगा, भगवान ही जाने। लोकतंत्र की ‘शक्ति’ पर सीधा सवाल उठ रहा है – “जनता की आवाज़ किसको सुनाई दे रही है?”
मुस्लिम कम्युनिटी को लेकर नया नैरेटिव
संघ की बात करें, तो इधर मुस्लिम कम्युनिटी को लेकर नया नैरेटिव सेट किया जा रहा है। भागवत जी की मीटिंग्स, मस्जिद विजिट – ये सब पब्लिक सिग्नल हैं। साफ है, अब पहचान की नई परिभाषा लिखी जा रही है, और टोपियों की राजनीति ज़ोरों पर है।
अब ये जो टोपी, मस्जिद, मंच – ये सब सिर्फ फोटो-ऑप्स नहीं, सोशल मैसेजिंग है। संघ चाहता है कि मुस्लिम पहचान को रिडिफाइन किया जाए। राष्ट्रवाद का नया फ्लेवर पेश किया जा रहा है – “हिंदू भी, मुसलमान भी, सब साथ – but with a twist!”
असल में, ये सब देखने के बाद सवाल उठता है – ये यूनिटी है या डिवाइड एंड रूल 2.0? नेता लोग तो यही चाहते हैं कि देश का स्ट्रक्चर क्लियर रहे, कोई कन्फ्यूजन न हो, सब लाइन में लग जाएँ।
अब आते हैं पैसों की बात पर – राफेल डील फिर से चर्चा में, ED के छापे, अनिल अंबानी की घंटी बजी, बड़े-बड़े कारोबारियों की शामत आई। स्टेट बैंक की नई घोषणाएं, लोन फ्रॉड, अरे भाई, ये सब अचानक नहीं हो रहा। सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड देखो, सब कुछ टाइमिंग से होता है politics में।
किसान ऋण माफी? सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन 12 लाख करोड़ माफ़ करना क्या सच में अर्थव्यवस्था के लिए है या चुनावी दांव है? कौन जाने, सच्चाई तो वही समझे जिसने ब्याज चुकाया हो।
इंडस्ट्री और बैंकिंग का खेल भी पुराना है। बड़े घरानों को फायदा, छोटे उधार लेने वाले जेल में। फर्जी लोन केस में कार्रवाई नहीं होती, क्योंकि अंदर से सब सेटिंग है। कौन किसका यार है, यही असली पॉलिटिक्स है।
अब इंटरनेशनल एंगल – ट्रंप साहब ने बोल दिया, “इंडियंस को जॉब नहीं मिलेगी।” भाई, ये तो ट्रेलर है, असली फिल्म अभी बाकी है। अमेरिका, चीन, यूरोप – हर तरफ अपने-अपने पत्ते खोल रहे हैं। भारत को अपनी गोटी खुद फिट करनी पड़ेगी। वरना, ग्लोबल गेम में पिटना तय है।
मौका भी है, दबाव भी है। आत्मनिर्भरता का नारा पुराना है, लेकिन अब सच में ज़रूरत लगती है। जब तक खुद पर भरोसा नहीं करोगे, तब तक दुनिया सिर पर नाचेगी।
आखिर में, एक ही बात – राजनीति में स्टेबिलिटी चाहिए, संसद में काम हो, ना कि सीरियल जैसा रोज़ नया ट्विस्ट। सरकार और विपक्ष दोनों को बात करनी चाहिए, वरना ये सब तमाशा चलता रहेगा। देश का फ्यूचर? भाई, सही दिशा पकड़ ली तो सब सेट, वरना तो “आगे कुआँ, पीछे खाई।”
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