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जेपी जयंती: वो ‘क्रांतिकारी’, जो 40 और 72 की उम्र में बना ‘युवा हृदय सम्राट’

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जेपी जयंती: ‘युवा ह्रदय सम्राट’

लोकनायक जयप्रकाश नारायण यदि आज हमारे बीच होते, तो 11 अक्टूबर 2025 को अपना 123वां जन्मदिन मना रहे होते। जेपी भारतीय राजनीति के वो नायक थे, जिन्होंने आजादी के 27 साल बाद एक विशाल युवा आंदोलन का नेतृत्व कर राजनीति में आ रही गिरावट को रोकने की साहसिक कोशिश की थी। उनके जीवन की कहानी संघर्ष, त्याग और क्रांति की एक मिसाल है।

आरंभिक जीवन और विचारों का निर्माण

1902 में जन्मे जयप्रकाश नारायण 10 साल की उम्र में पढ़ने के लिए पटना आ गए। 1920 में उनकी शादी 14 वर्षीय प्रभावती देवी से हुई, जो कांग्रेस के एक बड़े नेता ब्रजकिशोर प्रसाद की बेटी थीं। 1922 में जेपी उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए। जब वे 1929 में भारत लौटे, तो 1917 की रूसी क्रांति से गहरे प्रभावित थे और उनके विचारों में समाजवाद की झलक थी।

स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश

1930 में जेपी ने पाया कि भारत के कम्युनिस्ट अंतरराष्ट्रीय कारणों से देश के स्वतंत्रता संग्राम से दूरी बनाए हुए हैं। इसके बाद, एक समाजवादी होते हुए भी वे कांग्रेस में शामिल हो गए। उन्हें पहले कोलकाता में कांग्रेस के ट्रेड यूनियन की जिम्मेदारी मिली, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। बाद में वे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कार्यालय सचिव बने। जब उन्हें गिरफ्तार किया गया, तो फ्री प्रेस जर्नल ने पहले पन्ने पर शीर्षक लगाया: “Congress

1934 में, पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) का गठन हुआ। जेपी के प्रसिद्ध लेख “Why Socialism” (समाजवाद क्यों) को इसी पार्टी ने प्रकाशित किया, जिसने समाजवादी आंदोलन को एक नई दिशा दी।

1942 की क्रांति और ‘युवा हृदय सम्राट’

1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान जेपी हजारीबाग जेल में बंद थे। देश को उनकी जरूरत थी, इसलिए वे जेल की दीवार फांदकर भाग निकले। उन्होंने भूमिगत रहते हुए आंदोलन को एक विशाल रूप दिया। उस दौरान छात्रों के नाम लिखे उनके पत्र “Letter to students” ने उन्हें युवाओं के बीच इतना लोकप्रिय बना दिया कि वे ‘युवा हृदय सम्राट’ कहलाने लगे। 1944 में, जब जेपी 42 वर्ष के थे, पटना के गांधी मैदान में उनका नागरिक अभिनंदन किया गया। इसी मौके पर दिनकर जी ने लिखा, “झंझा सोई, तूफान उठा, प्लावन आ गया कगारों में… जयप्रकाश के हुंकारों में।”

आजादी के बाद रचनात्मक कार्य

आजादी के बाद 1952 के पहले आम चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी की हार और नेहरू से उनकी नजदीकी के कारण उन पर चुनाव ठीक से न लड़ाने के आरोप लगे। जेपी ने खुद चुनाव नहीं लड़ा था। राजनीति की उठापटक से निराश होकर 1954 में वे विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ गए। उन्होंने न केवल बिहार बल्कि कई राज्यों में इस आंदोलन को प्रभावशाली बनाया।

उनके सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें 1965 में रोमन मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित किया गया। 1967 में जब बिहार में अकाल पड़ा, तो उन्होंने ‘बिहार प्रदेश रिलीफ कमेटी’ बनाकर किसानों के लिए सिंचाई के गहरे बोरिंग की व्यवस्था की। इसके अलावा, उन्होंने नागालैंड, कश्मीर और बांग्लादेश मुक्ति संग्राम जैसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।

संपूर्ण क्रांति का आह्वान

1972-73 के आसपास, जेपी ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ और ‘सिटिजन फॉर डेमोक्रेसी’ के बैनर तले लोगों को जगा रहे थे। जब 1974 में गुजरात के छात्रों ने विद्रोह किया, तो जेपी ने उनका समर्थन किया। 18 मार्च 1974 को बिहार विधानसभा के सामने प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर गोली चली, जिसके बाद जेपी पूरी तरह से आंदोलन के समर्थन में आ गए। 8 अप्रैल 1974 को उन्होंने पटना के अशोक राजपथ पर एक ऐतिहासिक मौन जुलूस का नेतृत्व किया। मुंह पर पट्टी बांधे जब 800 लोग निकले, तो जनता जुड़ती गई और गांधी मैदान तक पहुँचते-पहुँचते जुलूस दस गुना बड़ा हो गया।

छात्र संघर्ष समिति के आग्रह पर उन्होंने आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया और इस तरह 72 साल की उम्र में वे एक बार फिर ‘युवा हृदय सम्राट’ बन गए। 5 जून 1974 को गांधी मैदान की ऐतिहासिक सभा में उन्होंने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। यह दुनिया के इतिहास में एक मिसाल है कि कोई व्यक्ति 40 और फिर 72 की उम्र में युवा आंदोलन का नेतृत्व कर रहा हो।

आपातकाल और अंतिम संघर्ष

जब जेपी आंदोलन को देश भर में ले जाने की कोशिश कर रहे थे, तब 25 जून 1975 की रात को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल (इमरजेंसी) लगा दिया और जेपी समेत लगभग एक लाख लोगों को जेल में डाल दिया गया। जेल में उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। रिहाई के बाद, गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद उन्होंने 1977 के चुनाव में सभी विपक्षी दलों को एकजुट किया, जिसके परिणामस्वरूप देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार (जनता पार्टी) बनी।

हालांकि, स्वास्थ्य ने उन्हें इस नई सरकार को दिशा देने का अवसर नहीं दिया और जल्द ही जनता पार्टी आपसी कलह में बिखर गई। जेपी ने जिस ‘जनशक्ति’ की बात की थी, वह संसदीय राजनीति की सीमाओं में खो गई। आज जब देश सांप्रदायिक राजनीति और नफरत के दौर से गुजर रहा है, तब जेपी के विचार और भी प्रासंगिक हो जाते हैं। जैसा कि एक कवि ने लिखा था, आज भी यह कहना उचित होगा: “इस देश पर उधार है एक बूढ़ा आदमी।”

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