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Modi को ममता की सख्त नसीहत: क्या Amit Shah बन सकते हैं ‘मीर जाफर’?
“अमित शाह एक दिन मोदी के मीर जाफर बनेंगे, वह कार्यवाहक प्रधानमंत्री की तरह बर्ताव कर रहे हैं, प्रधानमंत्री, उन पर भरोसा मत करें।” यह बयान सिर्फ एक तंज नहीं, भारतीय राजनीति पर सीधा हमला है। कोलकाता में ममता बनर्जी ने यह बात कही और इसके साथ ही उन्होंने उड़ीसा के कटक में 5 अक्टूबर को दुर्गा पूजा विसर्जन के दौरान हुई हिंसा और बिहार में दर्ज मामलों का भी जिक्र किया। उनका आरोप है कि कटक में हालात खराब हुए, इसकी वजह भाजपा और बजरंग दल की हरकतें हैं। सवाल यहीं से उठता है, अगर यह सब सच है तो क्या सत्ता के भीतर भरोसे का संकट गहरा रहा है, और क्या नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी नेता पर ही शक की सुई घूम रही है?
ममता बनर्जी का तीखा आरोप, सियासत में सनसनी क्यों
- ममता ने साफ कहा कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, प्रधानमंत्री की तरह व्यवहार कर रहे हैं। उनके शब्द थे कि पीएम उन्हें इतना भरोसा न दें।
- उन्होंने कटक की हिंसा को सांप्रदायिक बताया और जिम्मेदारी भाजपा तथा बजरंग दल पर डाली।
- इस बयान का असर इसलिए बड़ा है क्योंकि यह भरोसे और नेतृत्व, दोनों पर चोट करता है। भाजपा के भीतर और बाहर, यह चर्चा तेज हो गई है कि क्या सत्ता के शीर्ष पर कोई छुपी खींचतान चल रही है।
“मीर जाफर” वाला संदर्भ इस बयान को और धार देता है। यह सिर्फ तुलना नहीं, इतिहास की एक तीखी याद है, जो विश्वासघात का रूपक बन चुकी है।
मीर जाफर कौन थे
- मीर जाफर, बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के सेनापति थे।
- 1757 की प्लासी की लड़ाई के समय उन्होंने अंग्रेजों से गुप्त समझौता किया।
- लड़ाई के दिन उनकी सेना ने निर्णायक भूमिका नहीं निभाई, सिराजुद्दौला पराजित हुए।
- इसके बाद अंग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया।
- इस घटना ने भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नींव को मजबूत किया। इसी वजह से मीर जाफर को भारतीय इतिहास में विश्वासघात का प्रतीक कहा जाता है।
घटनाक्रम एक नज़र में:
- लड़ाई से पहले, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से गुप्त सौदा।
- लड़ाई के दौरान, सेना का निष्क्रिय रहना।
- लड़ाई के बाद, ब्रिटिश जीत और मीर जाफर की ताजपोशी।
यही कारण है कि जब कोई बड़े नेता के खिलाफ अंदर से खतरा बताया जाता है, तो मीर जाफर का नाम सामने आता है।
अमित शाह से तुलना क्यों
ममता का आशय साफ है। उनका कहना है कि शाह, प्रधानमंत्री के भरोसे के बीच में दरार बन सकते हैं। वह चेतावनी देती दिखती हैं कि कहीं ऐसा न हो कि नजदीकी रिश्ते ही सबसे बड़ा जोखिम बन जाएं। क्या अमित शाह सच में प्रधानमंत्री पद की राह देख रहे हैं, क्या वह अपनी अलग चाल चल रहे हैं, क्या वह कार्यवाहक जैसी स्थिति में हैं, यही वे सवाल उठाती हैं। यह तुलना कठोर है, पर राजनीति में ऐसे रूपक असर छोड़ते हैं।
क्या वाकई शाह, मोदी की जगह लेने की पोजीशन में हैं?
भाजपा की राजनीति में नरेंद्र मोदी और अमित शाह, सबसे चर्चित जोड़ी हैं। अक्सर शाह को “बीजेपी का चाणक्य” कहा जाता है। संगठन से लेकर चुनाव तक, उनकी सक्रियता और पकड़ दिखती रही है। पार्टी की बड़ी मीटिंगों में अहम फैसलों के समय शाह, प्रधानमंत्री के साथ बैठे दिखते हैं। जो लोग राजनीति पर नजर रखते हैं, वे मानते हैं कि बड़े गठबंधन, मुश्किल राज्यों में सुलह और संगठन की कड़ियां जोड़ना, यह काम शाह की टेबल से होकर गुजरते हैं।
शाह के प्रभाव के कुछ ठोस उदाहरण:
- संगठनात्मक फैसलों पर अंतिम सहमति दिलाना।
- गठबंधन में टूट-फूट होने लगे तो जाकर समीकरण ठीक करना।
- चुनावी रणनीति के धागे जोड़ना, जमीन पर संदेश को एक लाइन देना।
- विवादित समय में पार्टी के भीतर संवाद साधना और निर्णायक रुख लेना।
इसी असर के कारण कई बार यह चर्चा उठती है कि अगर कभी मोदी के बाद कोई चेहरा आएगा, तो वह अमित शाह हो सकते हैं। ममता के बयान के बाद यह चर्चा फिर ताजा हो गई है, पर एक नए एंगल के साथ।
भाजपा के भीतर खींचतान, और आरएसएस के साथ तल्खी
ममता का बयान सिर्फ एक व्यक्ति पर नहीं है, यह उस दौर का भी आईना दिखाता है जब पार्टी और संगठन के बीच दूरी की बातें सुनाई देती हैं।
क्या संकेत मिल रहे हैं
- लंबे समय से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का नाम तय नहीं हो पाया, यह चर्चा का विषय है।
- कई राज्यों में संगठनात्मक नियुक्तियां लटकी बताई जाती हैं, जिससे असंतोष की सूचनाएं आती हैं।
- बिहार में सीट शेयरिंग के पेंच का बार‑बार जिक्र होता रहा है।
- यह सब मिलकर एक तस्वीर बनाते हैं कि पार्टी के भीतर अलग‑अलग धड़े अपनी बात मनवाने की कोशिश कर रहे हैं।
इन मुद्दों ने यह चर्चा भी तेज की है कि भाजपा में दो तरह की प्राथमिकताएं काम कर रही हैं। एक, जिन्हें संघ का करीबी माना जाता है, जैसे नितिन गडकरी और देवेंद्र फडणवीस। दूसरी, जिन्हें लोग “गुजरात लॉबी” कहकर जोड़ते हैं, जैसे नरेंद्र मोदी, अमित शाह और जेपी नड्डा।
आरएसएस बनाम भाजपा का तनाव
- परंपरा बताती है कि प्रधानमंत्री से जुड़े बड़े फैसलों में संघ की राय अहम रहती है। मोदी का उभार भी इसी व्यापक ढांचे के भीतर हुआ।
- चुनावों के दौरान कभी यह आवाज आई कि भाजपा को अब संघ की जरूरत नहीं, पर अगले ही साल कई फैसलों में संघ की सक्रियता वापस नजर आई। संदेश साफ था, संगठन की जड़ें अब भी मजबूत हैं।
- राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन को लेकर भी खिंचाव जताया जाता है। कहा जाता है कि संघ, संजय जोशी का नाम आगे कर रहा है, जबकि मोदी और शाह की ओर से अन्य नामों को प्राथमिकता मिलती है। यही ठहराव दिखाता है कि तालमेल आसान नहीं।
ममता इसी फासले की ओर इशारा करती दिखती हैं। उनका कहना है कि भरोसे में दरार न आने दें, नहीं तो मौका किसी मीर जाफर जैसे भरोसेमंद को भी बहका सकता है।
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