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Manmohan Singh: एक साधारण, पर असाधारण सरदार थे मनमोहन सिंह
Manmohan Singh: वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर एक रोचक टिप्पणी दे रहे हैं जिसमें वे मनमोहन सिंह को यह भरोसा देते हैं कि इतिहास निर्मम नहीं होता। मनमोहन ने कहा था कि मुझे उम्मीद है कि इतिहास मेरा मूल्यांकन करते समय ज्यादा उदार होगा। मनमोहन सिंह पर पढ़िए श्रीनिवास की पूरी रचना।
दिवंगत डॉ. मनमोहन सिंह पर कुछ लिखने की मुझमें पात्रता नही है। सबसे पहले तो यह स्वीकारोक्ति कि मुझे अर्थशास्त्र की बहुत समझ नहीं है; और मनमोहन सिंह की ख्याति अर्थशास्त्र के विद्वान के रूप में है. और वित्त मंत्री के रूप में देश में ऐसे आर्थिक सुधारों की पहल करने का श्रेय उनको जाता है, कांग्रेस के धुर विरोधी भी जिसके कायल हैं, लेकिन मुझ जैसे लोग तब (1991 में) उन बदलावों को संदेह की नजर से देखते थे. हमें लगता था कि उस समय तक की नेहरू की नीतियों पर चलते रहे भारत जैसे देश, जिसकी अधिसंख्य आबादी गरीबी का दंश झेल रही है, में निजीकरण, पूंजीवाद, और बाजार को खुली छूट देना आम आदमी के हित में नहीं होगा. यह संदेह अब भी बरकरार है. मगर सच यह भी है कि उसके बाद से देश के निचले तबके तक समृद्धि की संभावना खुली है. गांवों से जितना भी रिश्ता बचा है, खुली आंखों से दिख रहा है कि पक्के कच्चे मकानों की जगह पक्के मकानों ने ले ली है. ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे सीरियल देखने के लिए चंद दरवाजों पर भीड़ जुटती थी, क्रिकेट मैच देखने के लिए पड़ोसी गांव के युवा हमारे दरवाजे पर आते थे. गाँव से बाहर काम कर रहे लोग एक या दो घरों के लैंड लाइन पर ही अपने परिजनों से बात कर पाते थे.
बेशक मनमोहन सिंह नहीं होते, तो कोई और होता. यह बदलाव तो अपरिहार्य था.
चीन देख कर लौटे लोगों को कहते सुना है कि इस मामले में भारत कम से कम दस साल पीछे हो गया! एक दशक पहले यह हो जाता तो देश की हालत कुछ और होती.
पता नहीं, मैं आश्वस्त नहीं हूं. मगर अच्छा या बुरा, इतना मानता हूं कि उन्होंने जो किया, किसी निजी स्वार्थ में या ‘अपनों’ को लाभ पहुंचाने की नीयत से नहीं किया. वैसे भी इस बदलाव का श्रेय तो पीवी नरसिम्हा राव को मिलना चाहिए, जिन्होंने एक गैर राजनीतिक व्यक्ति को वित्त मंत्री बनाया और उनको खुली छूट दी.
मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनना भी महज संयोग था; और इसका श्रेय सोनिया गांधी को जाता है, जिन्होंने कम से कम यह एक अच्छा काम ज़रूर किया. एक हद तक इसका श्रेय दिवंगत सुषमा स्वराज और उमा भारती को भी दिया जा सकता है, जिन लोगों ने ‘विदेशी मूल’ की सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का न सिर्फ प्रबल विरोध किया था, बल्कि घोषणा कर दी थी कि यदि सोनिया पीएम बन गयीं, तो वे शेष जीवन ‘विधवा’ के रूप में जियेंगी! संभव है, सोनिया गांधी ने कोई ‘त्याग’ नहीं किया हो, बल्कि संभावित विरोध और उपद्रव से घबरा कर मनमोहन सिंह का नाम आगे कर दिया हो.
इधर मनमोहन सिंह पर एक फिल्म ‘एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर’ बनी थी. 2114 के बाद बनी इस तरह की तमाम फिल्मों का मकसद अमूमन वर्तमान सत्ता पक्ष के मुद्दों का प्रचार और इसके नेताओं और अतीत के इनके पसंदीदा आदर्श नायकों/चरित्रों का ग्लोरीफिकेशन ही रहा है. इसलिए संभव है, फिल्म में मनमोहन सिंह को ‘रिमोट कंट्रोल’ से काम करने वाला पीएम बताने का प्रयास किया गया हो, जैसा प्रधानमंत्री समेत सत्ता पक्ष के सभी नेता कहते भी रहे हैं. हालांकि फिल्म के टाइटल को गलत नहीं कहा जा सकता, मगर देखना यह चाहिए कि ‘एक्सीडेंटली’ बनने के बाद प्रधानमंत्री के रूप मनमोहन सिंह ने क्या किया, कितना सही या कितना गलत.
मेरी नजर में यूपीए-1 और यूपीए-2 के काल में भी यदि कुछ अच्छा हुआ, जो हुआ भी, उसका अधिकतम श्रेय सोनिया गांधी, कांग्रेस और यूपीए में शामिल रहे घटक दलों का आपसी तालमेल और कुछ बुनियादी मुद्दों पर सहमति थी. वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने जिस उदारीकरण की शुरुआत की थी, यूपीए काल में उसे बेलगाम होने से रोका गया, सरकार की दिशा और छवि जनविरोधी न हो जाये, इसका सायास (प्रयत्नपूर्वक )प्रयास किया गया. जनहित के, आम नागरिक को ताकत देने के कुछ कानून बने. अफसोस कि यूपीए-2 में दिशा बिगड़ी, इसके साथ ही विपक्ष, मूल रूप से भाजपा और मीडिया के एक हिस्से ने अनवरत दुष्प्रचार भी किया. नतीजा सामने है. यूपीए सरकार के समय बने जनहित से जुड़े अनेक कानूनों को कमजोर व निष्प्रभावी किया जा चुका है. सबसे बड़ा उदाहरण सूचना का अधिकार है.
प्रधानमंत्री पद पर आसीन व्यक्ति, जिसकी विद्वता का लोहा दुनिया मानती है, वह इतना सरल, इतना अहंकार रहित हो सकता है, यह अपने आप में विलक्षण है. उनसे जुड़े ऐसे अनेक किस्से लोग याद कर रहे हैं, बता रहे हैं, तो मैं भी एक कहीं पढ़े हुए प्रसंग का जिक्र कर रहा हूं.
दिल्ली में कहीं बड़े अधिकारियों के एक आयोजन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आना था. उनकी पत्नी गुरुशरण कौर भी श्रोताओं के बीच बैठी थीं. वह किसी कालेज में शिक्षिका थीं. साधारण पहनावा. वहाँ बड़े अफ़सरों की लकदक बीवियों को एक आम महिला का उनके बीच बैठना अजीब लग रहा था, शायद खटक भी रहा हो. बगल में बैठी एक ने पूछा- आपके हस्बैंड क्या करते हैं? गुरुशरण कौर ने कहा- वह भी सरकार में है. कहां? किस विभाग में? पीएमओ में. किस पद पर, उनका नाम? मनमोहन सिंह. कल्पना कीजिये कि उन पर क्या बीती होगी; और कल्पना कीजिये कि आज किसी विधायक या सांसद की भी पत्नी इस तरह रह सकती है कि उसे कोई पहचाने भी नहीं?
उनके काम का मूल्यांकन तो समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री करते रहेंगे, राजनीतिक समीक्षक भी, मगर मेरी नज़र में मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी विशेषता ‘साधारण’ होना ही है.
कोई ‘विलक्षणता’ नहीं, प्रभावशाली वक्ता नहीं. मगर पद का कोई गुमान भी नहीं! आज तो यही एक विलक्षण बात लगती है.
उम्मीद करता हूं कि मनमोहन सिंह की यह उम्मीद पूरी होगी, जो उन्होंने तीन जनवरी 2014 को कहा था- ‘मुझे उम्मीद है कि इतिहास मेरा मूल्यांकन करते समय ज्यादा उदार होगा.’ इतिहास शायद इतना निर्मम नहीं होता.
- श्रीनिवास, वरिष्ठ पत्रकार