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Mccluskieganj: झारखंड का मैक्लुस्कीगंज, बंगालियों का पसंदीदा पर्यटन स्थल

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Mccluskieganj: रांची से 55 किलोमीटर दूर मैक्लुस्कीगंज झारखंड का मिनी लंदन कहा जाता है। जंगलों व पहाड़ों के बीच बसा यह कस्बा अब भी पर्यटकों, पत्रकारों व फिल्म निर्माताओं के लिए आकर्षण का केंद्र है। कभी यहां पर 400 गोरे परिवार रहा करते थे। अब मात्र कुछ परिवार ही बचे हुए हैं। उन्हीं के विक्टोरियन स्टाइल के बंगले व फल के बगीचे लोगों को बरबस यहां खींचकर लाते हैं। अपने जमाने में इस जंगली इलाके में अंग्रेजी रहन-सहन, उनका अंदाज देश के लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र था। यहां बची हुई हर कोठी कुछ यही कहती है। देखने पर पता चलता है कि आधुनिक सुविधाओं में रहने वाले अंग्रेज इस जंगली इलाके में कैसे रहते रहे होंगे।

मैक्लुस्कीगंज को 1932-33 बसाया था ईटी मैक्लुस्की ने

Mccluskieganj: मैक्लुस्कीगंज में एंग्लो इंडियन परिवारों को 1932-33 में कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) के एंग्लो इंडियन व्यवसायी ईटी मैक्लुस्की ने बसाया था। यहां के लोग बताते हैं कि मैक्लुस्की यहां बराबर शिकार करने आया करते थे। यहां का माहौल उन्हें इतना पसंद आया कि यहां पर चमन बसाने का निर्णय ले लिया। इसके बाद उन्होंने कोलोनॉइजेशन सोसाइटी ऑफ इंडिया लिमिटेड नाम की एक संस्था का गठन किया। संस्था के नाम पर ही तत्कालीन रातू महाराजा से 10 हजार एकड़ जमीन खरीदी और एंग्लो इंडियन परिवारों को यहां बसने का आमंत्रण दिया। उनके आमंत्रण पर 1932 तक लगभग 400 परिवारों ने यहां पर बसने का निर्णय ले लिया था।

पश्चिम बंगाल के पर्यटकों की है पसंदीदा जगह

Mccluskieganj में अब भी विदेशी पर्यटक दिख जाते हैं। हालांकि, यह स्थान पश्चिम बंगाल के लोगों की पसंदीदा जगह है। अक्टूबर से मार्च तक यहां पर्यटकों की संख्या ज्यादा होती है। झारखंड सरकार की ओर से टूरिस्ट इंफार्मेशन सेंटर खोला गया है। डाक बंगला का निर्माण भी हुआ है। आने वाले दिनों में यहां कई योजनाएं प्रस्तावित हैं। हालांकि, समय के थपेड़ों और बदलती पीढ़ियों ने यहां की सूरत बदल दी है।

एंग्लो इंडियन यानी गोरों का यहां से जाना बन गई थी मजबूरी

Mccluskieganj: एंग्लो इंडियन परिवारों का यहां से पलायन मजबूरी बन गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध, बढ़ता परिवार व बच्चों के रोजगार को लेकर धीरे-धीरे एंग्लो इंडियन परिवार यहां से जाने लगा। आजादी के बाद यहां पर आधे परिवार ही बचे थे। 1957 में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल जाकिर हुसैन ने सोसाइटी के लोगों को सलाह दी कि जो लोग यहां से जाना चाहते हैं वह जा सकते हैं। उनके लिए सरकार व्यवस्था करेगी। इसके बाद फिर से 150 परिवार यहां से चले गए।

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दूसरे लोगों ने बनाया बसेरा, उपन्यास ने बंगालियों में बनाया लोकप्रिय

Mccluskieganj: गोरों के यहां से जाने के बाद दूसरे लोगों ने यहां पर बसेरा बनाना शुरू कर दिया था। इसमें सेना के अवकाश प्राप्त अधिकारी, व्यापारी व कई अन्य लोग भी थे। बुद्धदेव गुहा के मैक्लुस्कीगंज पर लिखे बांग्ला उपन्यास ने मैक्लुस्कीगंज को कोलकतावासियों के बीच लोकप्रिय बनाया। यहां पर बांग्ला उपन्यासकार बुद्धदेव गुहा, बांग्ला व हिन्दी फिल्मों की अभिनेत्री अपर्णा सेन ने भी एक-एक बंगला खरीदा था। वहीं, अभिनेत्री अपर्णा सेन अपने पति के साथ मैक्लुस्कीगंज में बहुत दिनों तक रही थीं। अपर्णा ने अपनी फिल्म 36 चौरंगी लेन की पटकथा मैक्लुस्कीगंज से ही प्रेरित होकर लिखी थी।

फिल्मकारों की भी बन रहा है पसंद मैक्लुस्कीगंज

Mccluskieganj: खलारी प्रखंड का मैक्लुस्कीगंज अब फिल्मकारों की भी पसंद बनते जा रहा है। फिल्मों के निर्माता व निर्देशक अक्सर यहां आया करते हैं। यहां पर कई बांग्ला फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। मार्च 2016 में डायरेक्टर और अभिनेत्री कोंकणा सेन के निर्देशन में फिल्म अ डेथ इन गंज की शूटिंग हुई थी। इसके अलावा यहां पर अक्सर फिल्मों की शूटिंग हुआ करती है।

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अधूरा रह गया मैक्लुस्कीगंज में प्रेम कुटीर का स्वप्न

बता दें कि मैक्लुस्कीगंज के दुल्ली में दिल्ली के एक बड़े कारोबारी नरेश चंद्र बाहरी ने प्रेमकुटी के रूप में सद्भावना का जो सपना देखा था, वह अधूरा रहा गया। बाहरी ने यहां सद्भावना स्थल के निर्माण की शुरुआत की थी। वे एक ही परिसर में मंदिर, मस्जिद, चर्च व गुरुद्वारा का निर्माण कराना चाहते थे। पर, वे चर्च व गुरुद्वारा का निर्माण कार्य पूरा नहीं करा सके। वे अपने मित्रों के साथ वे मैक्लुस्कीगंज घूमने आया करते थे।

ऐसा करने के लिए बाहरी ने मैक्लुस्कीगंज के दुल्ली में ही उन्होंने एक बड़ी प्रापर्टी खरीद ली और सद्भावना स्थल बनाने का निर्णय लिया। इसके लिए बाबा प्रेम कुटीर नाम का एक ट्रस्ट बनाया और पांच एकड़ जमीन में एक ही परिसर में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई धर्म स्थल बनाने का काम शुरू किया। योजना के तहत निकट के एक पहाड़ी से सद्भावना स्थल तक रोप-वे लगाना था। परंतु बाहरी केवल मंदिर, मजार, को ही पूरा कर पाए। इसके बाद उनका निधन हो गया। इस कारण गुरुद्वारा अधूरा रह गया और चर्च की सिर्फ नींव ही पड़ सकी।

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