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Patna lathicharge: अधिकारों के लिए प्रदर्शन कर रहे संविदा कर्मचारी पर बर्बर हमला

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पटना (Patna) की सड़कें अफरा-तफरी में बदल गईं। पुलिसवालों ने लाठियाँ भांजीं। उन्होंने ठेका मज़दूरों पर जमकर लाठियाँ बरसाईं। कई प्रदर्शनकारियों के सिर में चोटें आईं। यह सब तब हुआ जब वे भाजपा पदाधिकारियों से मिलने की कोशिश कर रहे थे। मज़दूर अपनी समस्याएँ साझा करना चाहते थे। यह हिंसक झड़प एक बड़ी समस्या को दर्शाती है। यह सरकार और उसके संविदा कर्मचारी के बीच की खाई को उजागर करती है।

यह घटना कोई एकाध घटना नहीं है। यह एक बड़े मुद्दे का संकेत है। संविदा कर्मचारियों को उचित व्यवहार मिलना चाहिए। उनका विरोध प्रदर्शन बातचीत के लिए था। लेकिन यह हिंसक झड़प में बदल गया। यह व्यवस्था के संचालन के तरीके पर गंभीर सवाल उठाता है। यह बिहार में मानवाधिकारों और रोज़गार के मुद्दे को भी छूता है।

विरोध प्रदर्शन और पुलिस बर्बरता:

ठेका मज़दूर भाजपा कार्यालय गए। वे अपनी माँगें भाजपा के एक मंत्री के सामने रखना चाहते थे। उनका उद्देश्य शांतिपूर्ण था। उन्हें उम्मीद थी कि उनकी बात सीधे सुनी जाएगी। लेकिन पुलिस पहले से ही वहाँ मौजूद थी। उन्होंने मज़दूरों को इकट्ठा होने से रोक दिया।

पटना लाठीचार्ज (Patna lathicharge): बिना उकसावे के हिंसा भड़क उठी

अचानक पुलिस ने हमला शुरू कर दिया। उन्होंने लाठियों का जमकर इस्तेमाल किया। कई मज़दूर घायल हो गए। कुछ के सिर में भी चोटें आईं। यह एक क्रूर प्रतिक्रिया थी। साथी संविदाकर्मी अपने घायल साथियों की मदद के लिए दौड़ पड़े। इससे उनकी एकजुटता का पता चलता है।

घायल संविदाकर्मी को तुरंत मदद नहीं मिली

घायल संविदाकर्मी को तुरंत मदद नहीं मिली। अधिकारियों ने उन्हें चिकित्सा सहायता नहीं दी। दूसरे प्रदर्शनकारियों को उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। कुछ मज़दूरों की हालत बहुत खराब थी। उनकी हालत गंभीर थी।

संविदाकर्मी की शिकायतें: मुख्य मांगें

संविदाकर्मी की माँगें स्पष्ट थीं। उनमें से एक मुख्य माँग थी समान वेतन। वे समान काम के लिए समान वेतन चाहते थे। यह एक उचित माँग है। कई ठेका मज़दूर खुद को शोषित महसूस करते हैं।

उन्होंने नौकरी की सुरक्षा की भी माँग की। वे 60 साल की उम्र तक काम करना चाहते हैं। सरकार ने 8,000 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया था। प्रदर्शनकारी चाहते हैं कि उन्हें फिर से काम पर रखा जाए। वे 11 महीने की ठेका व्यवस्था को भी समाप्त करना चाहते हैं। यह व्यवस्था कोई वास्तविक स्थिरता नहीं देती।

तत्काल राहत और संवाद

मज़दूरों ने दो महीने का वेतन भी माँगा। उन्होंने सरकारी अधिकारियों से मिलने की माँग की। वे बात करना चाहते हैं। कोई मंत्री या नेता उनकी बात सुने। उन्हें लगता है कि सरकार ने उनकी उपेक्षा की है।

राहुल गांधी ने कड़ा रुख अपनाया। उन्होंने कहा, “नौकरी मांगो, तो डंडे पड़ते हैं।” उन्होंने सरकार को “गुंडा राज” बताया। उनका मानना ​​है कि एनडीए सरकार का समय खत्म हो रहा है। उन्हें जल्द ही बदलाव नज़र आ रहा है।

राजद ने भी इस घटना पर पोस्ट किया। उन्होंने नीतीश-भाजपा सरकार की आलोचना की। उन्होंने कहा कि लाठीचार्ज अक्सर होता है। शिक्षक और संविदा कर्मचारी इसके शिकार हैं। उन्हें अहंकार और अत्याचार दिखाई देता है। कांग्रेस ने भी यही भावनाएँ दोहराईं। उन्होंने नीतीश और मोदी सरकारों को दमनकारी बताया।

निंदा में विपक्षी एकता

विपक्षी दल एकजुट हैं। वे ठेका मज़दूरों के साथ हुए व्यवहार की निंदा करते हैं। इस घटना से जनता में गुस्सा भड़क रहा है। लोग सरकार से नाराज़ हैं।

सिर्फ़ संविदा कर्मचारी ही विरोध नहीं कर रहे हैं। छात्र भी अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। वे TRE4 को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। शिक्षक भर्ती को लेकर भी। बिहार में कई विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं।

बिहार के लोग गुस्से में हैं। वे सरकार से निराश हैं। इस तरह की घटनाओं से उन्हें लगता है कि उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। आने वाले चुनाव इसका सबूत दे सकते हैं।

निष्कर्ष: जवाबदेही और न्याय का आह्वान

पटना में संविदा कर्मचारियों पर हुआ हमला चिंताजनक है। यह दर्शाता है कि संविदा कर्मचारी कितनी मुश्किल स्थिति में हैं। उनकी चिंताओं पर सरकार की प्रतिक्रिया हिंसक रही। विपक्षी दल नाराज़ हैं। जनता भी परेशान है। इससे चुनाव से पहले तनावपूर्ण स्थिति पैदा हो गई है।

ठेका मज़दूर बुनियादी अधिकार चाहते हैं। समान वेतन और रोज़गार की सुरक्षा जायज़ माँगें हैं। वे बातचीत चाहते थे। हिंसा ही उनका जवाब था। यह असहमति को दबाने का एक तरीका दिखाता है। बिहार की जनता देख रही है। सरकार इस मामले को कैसे संभालती है, यह मायने रखेगा। क्या वे सुनेंगे? या इसी रास्ते पर चलते रहेंगे? भविष्य अनिश्चित है।

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