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JDU मुख्यालय में PM Modi की तस्वीर, दोस्ती या मजबूरी?

photo of pm modi at jdu headquarters
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PM Modi की तस्वीर JDU मुख्यालय में

नीतीश कुमार का राजनीतिक सफर रोमांचक और उतार-चढ़ाव से भरा रहा है. बार-बार सत्ता का समीकरण बदलना, मित्रता और दुश्मनी का सिलसिला, ये सब उनकी कहानी का हिस्सा हैं. हाल ही में एक बड़ा बदलाव देखने को मिला है. पटना में उनके मुख्यालय पर पीएम मोदी और नीतीश की तस्वीरों वाला पोस्टर लगाना पूरे क्षेत्र में चर्चा का विषय बन गया है. यह कदम 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए की एकता दिखाने का प्रयास माना जा रहा है. विशेषज्ञों का कहना है कि नीतीश का मोदी के साथ यह नाता कोई मजबूरी नहीं है और न ही सिर्फ रणनीति. यह दोनों का मिश्रण है. लेकिन, इस नई दोस्ती या मजबूरी को समझने के लिए उसकी पूरी पृष्ठभूमि जानना जरूरी है.

मोदी सांप्रदायिक छवि वाले नेता

साल 2005 में भाजपा के साथ मिलकर उन्होंने लालू प्रसाद यादव का 15 साल का शासन खत्म किया. लेकिन, 2013 में मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने पर नीतीश ने उस गठबंधन को तोड़ दिया. उनका तर्क था कि वह सांप्रदायिक छवि वाले नेता के साथ नहीं रह सकते. उस समय, 2015 में उन्होंने राजद और कांग्रेस के साथ महागठबंधन कर बिहार विधानसभा को फिर से जीता. फिर, 2017 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर राजद से दूरी बना कर भाजपा के साथ हो गए. 2022 में फिर से विपक्ष में रहे, लेकिन 2024 में एनडीए में वापस लौट आए.

JDU मुख्यालय में लगी मोदी की तस्वीर

बार-बार गठबंधन बदलने का यह सिलसिला नीतीश को कई घमासान में डाल चुका है. कुछ लोग उन्हें ‘पलटीमार’ कहते हैं तो कुछ ‘पलटू राम’. लेकिन, वह जानते हैं कि बिहार की जातीय और सामाजिक समीकरण उनकी हर चाल का आधार है. उनकी राजनीति इस समीकरण को निभाने में सफल रही है. यही वजह है कि पिछले दो दशकों से बिहार पर उनका प्रभाव बना रहा है. हाल ही में JDU मुख्यालय में लगी उनकी तस्वीर, पीएम मोदी के साथ, राजनीति में नई हलचल पैदा कर दी है. यह पहली बार है जब ऐसा हुआ है और यह नीतीश की नई दिशा का संकेत भी है.

जेडीयू के प्रवक्ता नीरज कुमार कहते हैं कि यह तस्वीर बिहार के विकास और केंद्र के समर्थन का प्रतीक है. उनका कहना है कि पोस्टरों में ‘महिलाओं को रोजगार, नीतीश-मोदी सरकार फिर से’ और ‘बिहार में उद्योग, नीतीश-मोदी सरकार फिर से’ जैसे नारों का इस्तेमाल हुआ है. इससे साफ दिखाई पड़ता है कि यह गठबंधन भाजपा और जेडीयू की ‘डबल इंजन’ सरकार को मजबूत करने का प्रयास है. पर सवाल यह है कि क्या यह कदम नीतीश की अब मजबूरी है या फिर 2025 के चुनाव से पहले अपनी विश्वसनीयता को मजबूत करने की कोशिश? आखिर, इस सियासी उलटफेर के पीछे क्या वजह है?

नीतीश की शाख कमजोर

2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत नहीं मिला है. जेडीयू के 12 सांसद एनडीए के लिए अहम हैं. नीतीश ने इस मौके का पूरा फायदा उठाया और केंद्र में अपनी स्थिति बेहतर बनाई. सूत्र बताते हैं कि जेडीयू ने दो मंत्रिपद और एक राज्य मंत्री का पद मांगा था, जिसे भाजपा ने मान लिया. यह दिखाता है कि नीतीश अब एक मजबूत साझेदार के रूप में राजनीति में हैं. साथ ही, उनका वोट बैंक खासकर कुर्मी और पिछड़े वर्ग में मजबूत है. लेकिन, पिछले कुछ सालों में बार-बार बदलते गठबंधनों और स्वास्थ्य की खबरों ने उनकी साख को कमजोर किया है. अब, मोदी की लोकप्रियता और केंद्र सरकार की योजनाओं के भरोसे, नीतीश अपने कद को फिर से ऊँचा उठाने की कोशिश कर रहे हैं.

सवाल यह है कि नीतीश क्या चाहते हैं? विशेषज्ञ मानते हैं कि यह कदम उनकी रणनीति का हिस्सा है. बिहार में 2025 के चुनाव में जेडीयू और भाजपा के बीच सीटों का बंटवारा, और मुख्यमंत्री पद को लेकर तनाव हो सकता है. भाजपा पहले ही जेडीयू से ज्यादा सीटें जीत चुकी है. अब, वह बिहार में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि नीतीश को केंद्र में उप-प्रधानमंत्री या अन्य बड़े पद मिलकर सम्मानजनक विदाई भी हो सकती है.

मोदी-विरोधी’ रवैये से मुक्ति का संकेत

उनकी गतिविधियों से स्पष्ट है कि नीतीश बिहार में अपनी जगह बनाए रखने के लिए गठबंधन का सहारा लेते रहेंगे. प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा की तस्वीर लगाना उनके लिए राजनीतिक तौर पर जरूरी है. यह कदम उनके पुराने ‘मोदी-विरोधी’ रवैये से मुक्ति का संकेत भी है. वह अब केंद्र सरकार की ताकत का इस्तेमाल कर खुद को मजबूत बना रहे हैं. विपक्ष का आरोप है कि नीतीश की यह हरकत मजबूरी है. राजद के प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी का कहना है कि यह जेडीयू का भाजपा के आगे ‘समर्पण’ है.

राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम बिहार की राजनीतिक दशा को बदल सकता है. यह एनडीए को मजबूत बनाने का संकेत है, लेकिन साथ ही जेडीयू के समर्थक और नेता भी उलझ सकते हैं. पहले से ही नीतीश की रीतियों से जुड़े कई लोगों में असमंजस व्याप्त है. चिराग पासवान जैसे नेताओं के बीच तनाव भी बढ़ सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि नीतीश की राजनीति जातिगत समीकरणों और सामाजिक न्याय पर टिकी है. उन्होंने पिछड़ों और अति पिछड़ों का समर्थन अपने गठबंधनों से पाया. अब, भाजपा के साथ खड़े होने से हिंदुत्व का एजेंडा भी चुनौती बन गया है.

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