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Ratan Tata: आज़ाद भारत की महत्वपूर्ण हस्ती रतन ‘टाटा’ को कैसे याद करें? इस पर अपनी लेखनी चलाई है जानेमाने पत्रकार श्रीनिवास ने।
रतन टाटा के निधन पर आ रही प्रतिक्रियाओं, उनको ‘भारत रत्न’ दिये जाने की मांग को देख कर भी कोई टिप्पणी करने की प्रेरणा नहीं हुई; या बचता रहा. मुझ नाचीज के कुछ लिखने या न लिखने से क्या फर्क पड़ता है, फिर भी दिमाग बार-बार उस तरफ जा तो रहा ही था. चूंकि मैं उस विरुदावली में शामिल नहीं होना चाहता था, इसलिए हिचक के साथ टुकड़ों में लिखता रहा, लेकिन शेयर करने का साहस नहीं जुटा सका. जो लिखा है, उससे अनेक सदस्यों की भावनाओं को ठेस लग सकती है. एडमिन कहेंगे तो मैं खुद डिलीट कर दूंगा, उनको यह अधिकार तो है ही. मगर वाहिनी समूह में इतना खुलापन तो होना चाहिए, दिवंगत रतन टाटा के बारे में जो भावनाएं मीडिया पर दिखी हैं- उनको याद करते हुए उनकी प्रशंसा में वाम- दक्षिण भेद मिट गया है- उसी कारण दुविधा हुई थी. लेकिन यह उनके प्रति अनादर नहीं है, बस तस्वीर का दूसरा पहलू है, जिसे आज कोई देखना नहीं चाहता…
रतन ‘टाटा’ को कैसे याद करें?
सबसे पहले, रतन टाटा के बारे में बहुत कुछ नहीं जानता, फिर भी मेरे मन में उनकी छवि एक सज्जन, ऊर्जावान, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी और कर्मनिष्ठ व्यक्ति की है. उनके बारे में कुछ खास नकारात्मक नहीं पढ़ा या सुना. लेकिन मैं उनके बारे में कुछ लिख भी नहीं रहा, बल्कि खुद को इस योग्य भी नहीं मानता. मैं उस ‘टाटा’ समूह की बात करना चाहता हूँ, जिसके वह एक हिस्सा और कुशल वारिस सिद्ध हुए. तो ‘टाटा’ से जुड़ी सबसे पहली बात जो जेहन में आती है, वह युवा काल में लगने वाला एक नारा है- ‘टाटा-बिड़ला की सरकार, नहीं चलेगी, नहीं चलेगी…’
वह कांग्रेस के एकछत्र शासन का दौर था और इस तरह के नारे विपक्षी दल (संभवतः भाजपा के पूर्व रूप ‘जनसंघ’ को छोड़कर) और मजदूर संगठनों के लोग लगाते थे. जाहिर है कि इस नारे में यह आरोप निहित था कि टाटा और बिड़ला जैसे उद्योग घरानों को सरकार का संरक्षण हासिल है; या सरकार इनके प्रभाव में है. यह आरोप कितना सच था, नहीं मालूम; मगर इससे इन घरानों के प्रति अच्छी धारणा तो नहीं बनती थी. बाद में यह धारणा कुछ हद तक बदली भी. खास कर टाटा समूह के बारे में कुछ सकारात्मक जानने को मिला.
जमशेदपुर जाने-देखने का मौका मिला तो नगर प्रबंधन के उनके कौशल से प्रभावित हुआ. आज भी यह देख और सोच कर हैरान और शर्मिंदा होता हूँ कि जमशेदपुर के शानदार ‘जुबली पार्क’ (टाटा का बनाया और संचालित) में प्रवेश निःशुल्क है; जबकि सरकार जैसे-तैसे पार्क बनवा कर ठेके पर दे देती है, जिनमें जाने के लिए वसूली होती है.
फिर यह भी महसूस किया कि अन्य उद्योगपतियों की तुलना में कम से कम अपने कर्मचारियों की बेहतरी के लिए ‘टाटा’ ने अच्छा काम किया है. उद्योगों के लिए कारखाने के आसपास सामाजिक दायित्व के तहत कार्य करने की शर्त होती है. सभी करते हैं, पर अधिकतर शायद दिखावा और फर्जी. उनकी तुलना में टाटा समूह निश्चय ही बेहतर करता है. 1979 के दंगों के समय जमशेदपुर में टाटा समूह की कुछ गतिविधियों के बारे में नजदीक से जाना.
फिर टाटा ने वैज्ञानिक शोध और सुविधाजनक चिकित्सा संस्थान भी खोले हैं. मुंबई का कैंसर अस्पताल एक उदाहरण है, जहां गरीब मरीजों के लिए रियायत भी है.
यह भी सुना-जाना (सच या गलत, नहीं मालूम) कि ब्रिटिश काल में मुंबई में ‘वाटसन’ नाम का एक होटल था, जिसमें शायद टाटा परिवार के ही एक सदस्य (संभवतः जमशेद जी) को ही घुसने नहीं दिया था. उसके बाहर बोर्ड लगा रहता था- इंडियन एंड डॉगस आर नॉट अलाऊ. इससे चिढ़कर टाटा समूह ने ‘ताज’ होटल बनवाया, जिसके बाहर गोरी चमड़ी वालों के लिए प्रवेश निषेध का बोर्ड लगा था. रतन टाटा ही एक बार लंदन से एक विमान को कुशल पायलट की तरह उड़ाकर दिल्ली आ गये थे!
इन तमाम सकारात्मक बातों के बावजूद ‘टाटा-बिड़ला की सरकार’ वाले नारे का असर खत्म नहीं हुआ. हालांकि अब तो ‘अडानी-अंबानी’ का जमाना है; सत्ता के साथ इनके रिश्तों और उस रिश्ते के दम पर किये गये इनके, खासकर अडानी जी के कारनामों की जो (सच या गलत) जानकारियाँ उजागर होती रही हैं, इसके मुकाबले तो टाटा-बिड़ला बौने ही लगते हैं.
इसके अलावा भी कुछ बातें हैं, जो टाटा की चमक को धुंधली करती हैं. रतन टाटा को याद करते हुए मुझे ओडिशा के कलिंगनगर में दो जनवरी 2006 को हुई वह घटना याद आ गई (जिसे हत्याकांड ही कहना चाहिए), जिसमें टाटा कंपनी की निर्माणाधीन दीवार को रोकने के क्रम में निरीह आदिवासियों को पुलिस ने गोलियों से भून दिया था. उस कांड में 12 आदिवासी मारे गये थे और 35-40 बुरी तरह घायल हुए थे. अखबारों में यह खबर सुर्खियों में रही थी. यह भी पता चला कि मृतकों के शव जब परिजनों को सौंपे गये, तो कई के पंजे-कलाई तक गायब थे. वह सत्ता का क्रूर चेहरा था, जिसका लाभुक टाटा समूह था.
पश्चिम बंगाल के ‘सिंगुर’ में जो हुआ, उसके लिए टाटा कंपनी को सीधे जवाबदेह नहीं कहा जा सकता, फिर भी जो हुआ, वह टाटा के लिए ही तो हुआ; और अंततः हुआ यह कि राज्य से वाम सरकार की विदाई हो गयी! वैसे इसे भी कुछ लोग शायद टाटा का ‘सकारात्मक योगदान’ मानते हों.
यह भी याद आया कि जमशेदपुर के समाजवादी और वाम धारा के समाजकर्मी ‘टाटा’ समूह के एक भिन्न चेहरे की बात करते हैं. एक तो यही कि जमींदारी उन्मूलन के बाद भी देश में एक जगह- जमशेदपुर में- व्यवहार में या शायद कागजी तौर पर भी ‘टाटा’ की जमींदारी कायम है! एक पूरे शहर का प्रबंधन एक निजी कंपनी के हवाले है. वैसे इसका दूसरा पहलू यह है कि ‘कंपनी एरिया’ की व्यवस्था- सफाई आदि एकदम दुरुस्त है! और उसी शहर का जो हिस्सा सरकार और नगर निगम के नियंत्रण में है, वह बदहाल है! संभवतः उन इलाकों के आम नागरिक कंपनी एरिया में रहने वालों से ईर्ष्या भी करते हों!
एक गंभीर आरोप कर चोरी का है. सरकार और प्रशासन की मिलीभगत (बिहार से लेकर झारखंड तक कोई भी सरकार रही हो) टाटा की लीज हमेशा विस्तारित होती रही और उस जमीन का लगान भी कभी निर्धारित नहीं हो सका. जमशेदपुर/सिंहभूम के कतिपय नेता समय-समय पर यह मुद्दा उठाते भी रहे हैं, पर मामला अब भी पेंडिंग है. ‘टाटा’ की कंपनियों में जो मजदूर संघ हैं, उनमें भी अधिकतर प्रबंधन से मिलकर आंदोलन वगैरह का दिखावा ही करते हैं. इस मामले में टाटा और अन्य किसी उद्योग या कारखाने के प्रबंधन में कोई अंतर नहीं है.
इसके अलावा कोई उद्योगपति हो, व्यापारी हो या कलाकार- देश समाज के हालात से निर्लिप्त रहकर सिर्फ अपने मुनाफे की चिंता करे, तो कुछ अजीब तो लगता ही है!
मुझे एक गीत की यह लाइन भी याद रहती है- तुम अमीर इसलिए कि सौ फकीर हो गये… कोई करोड़पति और अरबपति बिना दो नंबर के बन जाये, यह लगभग नामुमकिन है! इनकी तुलना में बजाज घराने के राजीव बजाज की रीढ़ में हड्डी है, जिसने ‘गोदी मीडिया’ चैनलों- अखबारों को यह कहकर विज्ञापन देना बंद कर दिया कि हम नफरत फ़ैलाने में भागीदार नहीं बन सकते.
प्रसंगवश, उसी दिन जमशेदपुर के वाहिनी के साथी समाजकर्मी/अधिवक्ता, निशांत अखिलेश को मैसेज किया था- ‘रतन टाटा के निधन पर कोई त्वरित टिप्पणी?
उनका सवालिया जवाब था- ‘पहली बात, जानना चाहता हूँ कि उन्होंने ऐसा अच्छा क्या किया जिसके लिए उन्हें जाना जाये?’ मेरे खयाल से यह सवाल भी एक टिप्पणी थी. मैंने फिर पूछा- मेरा सवाल है कि उन्होंने बुरा क्या किया? मुझे ऐसा लगता है, अन्य उद्योगपतियों की तुलना में कम से कम अपने कर्मचारियों की बेहतरी के लिए अच्छा किया. गलत? जवाब : गलत! कर्मचारियों की बेहतरी के लिए कुछ नहीं किया!
बावजूद इन शंकाओं के, रतन टाटा आजाद भारत के एक महत्वपूर्ण हस्ती थे. वे उद्योगपति थे, व्यापारी और धंधेबाज नहीं. समाज और देश के लिए उपयोगी मशीनों वस्तुओं का उत्पादन करते थे, पैसे से पैसा नहीं बनाते थे. मगर उनको देवता और महामानव का दर्जा देने पर, जिसकी होड़ लगी हुई है, मुझे आपत्ति है! ‘विकास’ को जो पैमाना अब सर्वमान्य है, उस लिहाज से ‘टाटा’ का भी देश के विकास में योगदान है ही, जिसे रतन टाटा ने भी आगे बढ़ाया. उनके लिए मेरे मन में भी आदर का भाव है, बस.
टाटा के सकारात्मक योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता
लिखने के झोंक में याद नहीं रहा, अन्यथा कायदे से ‘टाटा’ के नाम पर सबसे पहले तो सड़क पर दौड़ते ‘टाटा’ के वाहन याद आने चाहिए थे- ट्रक, बस, हर तरफ टाटा! फिर हर घर में मौजूद ‘टाटा नमक’ भी. पता नहीं, किन किन और कितने क्षेत्रों में टाटा का वजूद कायम है. गुणवत्ता के लिहाज से भी अव्वल! 1907 में टाटा ने स्टील कारखाना लगाने का सोचा, यह भी अद्भुत है. आजादी के बाद भी किसी उद्योगपति ने इस उद्योग में इन्वेस्ट नहीं किया, जबकि तब देश को जरूरत थी और रोक भी नहीं थी. आखिर देश की जरूरत के लिए सरकार ने स्टील के कारखाने खोले. हालांकि टिस्को या देश की स्टील जरूरतों के लिए खनिज का किस तरह दोहन हुआ और उसकी कितनी कीमत स्थानीय निवासियों (आदिवासियों) को चुकानी पड़ी है, इस पहलू की अनदेखी कर दी जाती है. वैसे इस दोहन और विस्थापन के लिए मूलतः तो सरकार ही जवाबदेह रही है, वह जिस दल की हो.
यह भी याद रखने की जरूरत है कि टाटा परिवार पारसी समुदाय से है, भारत में जिसकी आबादी नगण्य ही है. हेराफेरी तो व्यापार-धंधे का अपरिहार्य हिस्सा है, मगर पारसी लोगों के लगन और परिश्रम की दाद दिये बिना नहीं रहा जा सकता.
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श्रीनिवास, जानेमाने पत्रकार