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CJI पर जूता, जेल क्यों नहीं? ओवैसी के तीखे सवाल, क्या वह आपका रिश्तेदार था?
क्या अदालत के अंदर जूता उछाला जाना सिर्फ एक हल्की गलती है, या यह न्याय की गरिमा पर सीधा हमला है? हाल की घटना ने देश को झकझोर दिया है, क्योंकि सवाल सिर्फ एक जूते का नहीं, कानून की समानता और सत्ता की नज़दीकी के असर का है। सबसे बड़ी बात, उस शख्स पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं हुई, वह चैन से इंटरव्यू दे रहा है, और बहस इस पर नहीं, बल्कि इस चुप्पी पर हो रही है। यही मौन अब राजनीतिक मंचों पर भी गूंज रहा है, खासकर असदुद्दीन ओवैसी के भाषणों में, जहां उन्होंने सवाल पर सवाल ताने हैं।
अदालत में चौंकाने वाली घटना
अदालत के भीतर, गवाही के दौरान, एक वकील ने सीजीआई पर जूता फेंकने का हमला किया। यह घटना जितनी शर्मनाक है, उतनी ही चिन्ताजनक भी, क्योंकि जिस कुर्सी पर बैठा व्यक्ति कानून, संविधान और न्याय का प्रतीक माना जाता है, उसी पर यह हमला हुआ। और फिर भी, जैसा कहा गया, “सीजीआई पर हमला करने वाले उस वकील को पूरी तरह से छूट दे रखी है।”
हमला केवल एक कृत्य नहीं था, यह उस सोच की झलक है जो संस्थाओं की गरिमा को हल्के में लेती है। जो लोग अदालत की मर्यादा को समझते हैं, वे जानते हैं कि ऐसी हरकतें केवल व्यक्ति पर नहीं, व्यवस्था पर चोट करती हैं।
यह सिर्फ एक चूक नहीं थी, यह न्याय के प्रति अनादर था, और समाज के लिए गलत संदेश भी।
आगे क्या हुआ?
घटना के बाद जिस तरह का व्यवहार देखने को मिला, उसने और सवाल उठाए।
- इंटरव्यू बिना रोकटोक चल रहे हैं, जिम्मेदारी का संदर्भ गायब है।
- किसी ने उसे देशद्रोही या आतंकवादी नहीं कहा।
- सवाल उठे कि अगर यही काम किसी विरोधी विचारधारा के व्यक्ति ने किया होता, या उसका नाम मुसलमान होता, तो क्या वही छूट मिलती?
अलार्म क्यों बज रहा है, क्या कुछ लोगों को खास छूट है?
यह घटना एक बड़े सवाल की ओर इशारा करती है। अगर हमलावर किसी विपक्षी विचारधारा से होता तो क्या मीडिया उसे ऐसे ही चलाता? अगर उसका नाम मुसलमान होता तो क्या वह आराम से घर बैठकर इंटरव्यू देता? यह शंका यूं ही पैदा नहीं हुई। सोशल मीडिया पर कुछ लोग खुलकर भड़काने वाली बातें कर रहे हैं, जैसे कार घेरने के खुले आह्वान, वेबसाइटों और वीडियोज के जरिए उकसावा। फिर भी, गिरफ्तारी का नाम नहीं।
क्या इस ढील की वजह सत्ता के करीब रहने वाले विचारों का प्रभाव है? क्या यह वही अदृश्य छत्रछाया है जो कानून के मानकों को संदिग्ध बना देती है? सबसे चुभने वाली बात, सीजीआई ने केस दर्ज करने से मना कर दिया, लेकिन क्या सरकार और दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी यहीं खत्म हो जाती है? जब सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति की गरिमा दांव पर हो, तब सरकार की भूमिका और भी संवेदनशील होनी चाहिए।
विचारधारा और शक्ति की छाया
जिसे कानून के प्रति समानता कहनी चाहिए, उसे आज लोग प्रिविलेज कह रहे हैं। आखिर यह क्यों हो रहा है? क्या यह सत्ता की निकटता का असर है?
- सीजीआई के खिलाफ भीड़ उकसाने जैसी बातें खुलेआम कही गईं।
- किसी पर एफआईआर नहीं, न ही सख्त पुलिसिया कार्रवाई।
- सीजीआई ने केस दर्ज नहीं कराया, फिर भी सरकार और पुलिस की संवैधानिक जिम्मेदारी थी, जो निभती नहीं दिखी।
क्या किसी खास हमलावर का इंतजार है?
एक तीखा तंज सामने आया। क्या इंतजार है कि अगर अगली बार कोई मुसलमान ऐसा करे, तब तुरंत एनकाउंटर हो?
- अगर हमलावर विरोधी विचारधारा वाला होता, उसे तुरंत आतंकी बताया जाता।
- अगर उसका नाम मुसलमान होता, मीडिया आजादी नहीं देता, गिरफ़्तारी तेज होती।
- मौजूदा मामले में, उकसावे के बावजूद उसे खुली छूट दिख रही है।
बिहार में असदुद्दीन ओवैसी के सवाल, जवाब कौन देगा?
बिहार की रैलियों में असदुद्दीन ओवैसी ने इस मुद्दे को जोर से उठाया। उनका सीधा सवाल, क्यों छोड़ा उसे? क्या वह आपका रिश्तेदार था? कार्रवाई क्यों नहीं हुई? उन्होंने कहा कि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय के अधीन है, वह तुरंत एफआईआर कर सकती थी, केस दर्ज कर सकती थी, जरुरत पड़ती तो यूएपीए या एनएसए जैसे कड़े कानून भी लगा सकती थी। क्या सीजीआई पर हमला दिल्ली पुलिस के लिए सामान्य घटना है?
उनका यह तर्क सिर्फ राजनीति नहीं, जवाबदेही की मांग है। अगर कोई अदालत की गरिमा भंग करे, तो पुलिस का पहला काम कानून के मुताबिक कार्रवाई करना है। यहां, ट्वीट कर खानापूर्ति जैसा माहौल बना, और मामला ठंडा करने की कोशिश दिखी।
दिल्ली पुलिस की जवाबदेही पर सीधा सवाल
ओवैसी ने पूछा, पुलिस क्या चाहती है कि कोई और बड़ा हादसा हो, तब एक्शन ले? उन्होंने याद दिलाया, यह वही पुलिस है जो अमित शाह के मंत्रालय के अंतर्गत आती है, यानी केंद्र की सीधी जिम्मेदारी है।
- तुरंत एफआईआर दर्ज हो सकती थी, पर नहीं हुई।
- सख्त जांच की जरूरत थी, पर ढील दिखी।
- गृह मंत्री के विभाग के रहते, सख्ती की उम्मीद थी, पर खामोशी छा गई।
दलित कोण, वादों के उलट तस्वीर
इस पूरे मामले का एक और महत्वपूर्ण पहलू है, सीजीआई दलित हैं। ओवैसी ने इसे दलित मतदाताओं के सामने रखा। उनका कहना है, सरकार हर मंच पर दलित प्रेम के दावे करती है, लेकिन जब एक दलित सीजीआई पर हमला हुआ, तो एफआईआर तक नहीं हुई, सिर्फ बयान देकर मामला दबा दिया गया। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने बयान दिया और चुप हो गए, फिर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?
यहां तुलना भी सामने आती है।
- “I love Muhammad” जैसे पोस्टर लेकर निकलने पर हजारों मुसलमानों पर एफआईआर होती है, बुलडोजर चलते हैं, नामजद केस दर्ज होते हैं, सैकड़ों जेल भेजे जाते हैं, परेड तक करवाई जाती है।
- वही, अदालत के भीतर सीजीआई पर जूता उछाल दिया गया, फिर भी कोई एफआईआर नहीं, कोई कड़ी कार्रवाई नहीं।
न्याय या दोहरा मापदंड?
ओवैसी ने याद दिलाया कि मुस्लिम मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम फैसले दिए, बाबरी मस्जिद और ट्रिपल तलाक जैसे विषय पर भी। फिर भी क्या किसी मुसलमान ने अदालत की अवमानना में जूता फेंका? जो संविधान को मानता है, वह ऐसी हरकत कर ही नहीं सकता। जो संविधान और दलितों, दोनों के विरोध में खड़ा हो, उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई जरूरी है, लेकिन वह दिखी नहीं।
देशभक्ति की कसौटी पर बीजेपी, सवालों की बौछार
असदुद्दीन ओवैसी ने बीजेपी की देशभक्ति पर सीधा सवाल उठाया। उनकी चुनौती साफ है, आपकी बहादुरी यही है कि सीजीआई पर हमला हो जाए और आप हाथ पर हाथ धरकर बैठें? दिल्ली पुलिस, जो अमित शाह के सीधे अधीन है, खामोश क्यों है? यह सवाल सिर्फ तंज नहीं, एक तरह से लोकतंत्र की सेहत पर सवाल है। जब संस्थाओं पर हमला होता है, तब सरकार की पहली जिम्मेदारी भरोसा बहाल करना है।
यह मुद्दा अब केवल अदालत की मर्यादा का नहीं रहा। यह आने वाले चुनावी विमर्श का अहम बिंदु बनता दिख रहा है। खासकर बिहार में, जहां हर रैली में यह सवाल उठेगा, वहां बीजेपी के लिए असहज स्थिति बन सकती है। विपक्ष इसे दलित सुरक्षा और न्याय की समानता से जोड़ रहा है, और यही बात जमीन पर असर डाल सकती है।
दलित वोट बैंक पर असर
एक चुभता हुआ सवाल बार-बार दोहराया जा रहा है, अगर इस देश में एक दलित सीजीआई सुरक्षित नहीं, तो आम दलित कैसे सुरक्षित होंगे? यही सवाल वोट शिफ्टिंग की बहस को हवा दे रहा है।
बीजेपी का दलित प्रेम सवालों के घेरे में है।
दलित मतदाताओं में अविश्वास बढ़ सकता है।
यह मुद्दा स्थानीय स्तर पर पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा सकता है।
आगे बीजेपी क्या करेगी?
अब हर किसी की नजर बीजेपी की रणनीति पर है। क्या पार्टी इस पर ठोस जवाब देगी, या टीवी पर जूता फेंकने वाले के इंटरव्यू चलाकर बहस को बैलेंस करने की कोशिश होगी? कई संभावनाएं सामने हैं, और हर रास्ता राजनीतिक लागत तय करेगा।
- बिहार में रैलियों में यह मुद्दा और तेज होगा।
- दलित मतदाताओं में शंका बढ़ेगी, विपक्ष को फायदा मिल सकता है।
- सरकार को पुलिस की चुप्पी पर स्पष्टीकरण देना पड़ेगा।
मीडिया की भूमिका, क्या हमने सवाल पूछना छोड़ दिया है?
यह घटना मीडिया के रवैये पर भी रोशनी डालती है। जिस तरह इंटरव्यू बिना चुनौती के चल रहे हैं, वह चिंता बढ़ाता है। क्या मीडिया का काम सिर्फ मंच देना है, या जवाबदेही तय करना भी? कानून, अदालत और लोकतंत्र की मर्यादा पर चोट हो, तब मीडिया की परीक्षा और कड़ी होती है। यहां बिना सख्त सवालों के कार्यक्रम, केवल सनसनी बढ़ाते हैं, समाधान नहीं देते। लोगों को उकसाने वाले बयानों को जगह देने से पहले, यह देखना भी जरूरी है कि उसका असर क्या होगा।
क्या पुलिस कार्रवाई सिर्फ पहचान देखकर तय होती है?
सबसे कठोर सवाल यही है। जब नाम, धर्म, या विचारधारा देखकर कार्रवाई की रफ्तार तय होने लगे, तब कानून कमजोर पड़ता है। कानून सबके लिए बराबर है, यह सिर्फ किताब की लाइन नहीं, लोकतंत्र की बुनियाद है। अगर किसी पर भीड़ उकसाने, अदालत की मर्यादा भंग करने, और हिंसा को प्रेरित करने के आरोप बनते हैं, तो कार्रवाई भी उसी तीखेपन से होनी चाहिए। सोशल मीडिया पर कार घेरने जैसी बातें करना सामान्य नहीं, यह सीधा उकसावा है। ऐसे में चुप्पी खुद एक संदेश देती है, और गलत।
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