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Sushil Modi: जातिवादी राजनीति के कारण वह मुकाम हासिल नहीं कर सके, जो डिज़र्व करते थे सुशील मोदी
Sushil Modi: 'मोदी ने कहा' के साथ कोई खबर छपती थी, तो मोदी का मतलब सुशील मोदी होता था
Sushil Modi: 1974 आंदोलन के निर्विवाद रूप से दो बड़े नाम थे- लालू प्रसाद और सुशील कुमार मोदी. इसलिए भी कि लालू प्रसाद पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे और सुशील मोदी जेनरल सेक्रेटरी; और उस आंदोलन को खड़ा करने में पटना विवि छात्र संघ की अग्रणी भूमिका थी. तब राष्ट्रीय स्तर के एक चर्चित मुखर नेता हुआ करते थे पीलू मोदी. मगर उस दौरान बिहार के अखबारों में ‘मोदी ने कहा’ के साथ कोई खबर छपती थी, तो मोदी का मतलब सुशील मोदी होता था.
एक दूषित वैचारिक जमात और संगठन में रहते हुए भी सुशील मोदी एक शालीन भले इंसान लगते थे. तार्किक ढंग से, बिना चीखे अपनी बात रख सकते थे.
1990 में जब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने, तब सुशील जी भाजपा में उनके स्वाभाविक विकल्प थे या दिखते थे. लेकिन तब तक बिहार की राजनीति ‘सामाजिक न्याय’ की धुरी पर केंद्रित हो चुकी थी. इसलिए जातिवाद की आलोचना करती रही भाजपा को भी लालू प्रसाद के जवाब में किसी यादव नेता को सामने करना पड़ा. इसमें संभवतः भाजपा के अंदर की खेमेबाजी की भी भूमिका रही हो. उनको गैर बिहारी भी कहा गया. भाजपा में किन्हीं कारणों से उनको नापसंद करने वालों को भी मौका मिला. कभी सबसे करीबी रहे अश्विनी चौबे भी उनसे दूर हो गये. मूल बात यह कि लालू प्रसाद के चमत्कारी उभार के बाद वे कभी भाजपा की ओर से शीर्ष पद के दावेदार नहीं बन सके.
1978 से लेकर ’81-81 के बीच प्रांतीय स्तर पर काम करते हुए, पटना में एकाध बार उनसे मिलने, बात करने का मौका मिला. तब तक वे विद्यार्थी परिषद से जुड़े हुए थे. इस नाते युवा संगठनों की बैठकों में शामिल होते थे. राजेंद्र नगर स्थित संघर्ष वाहिनी के दफ्तर भी आते थे.
जब समाज और राजनीति में ईमानदारी, खास कर वित्तीय मामलों में, एक दुर्लभ गुण हो गया है, सुशील मोदी इस एक गुण के कारण ही हम जैसों के आदर के पात्र थे और रहेंगे.
भरोसेमंद लोग बताते हैं कि वे बिहार के चंद अपवाद विधायकों में शामिल थे, जिन्होंने कभी यात्रा का फर्जी बिल बना कर पैसा नहीं लिया. दलीय राजनीति में थे, वह भी भाजपा जैसी पार्टी में, तो छल-छद्म करते ही होंगे. हालांकि मैं कोई उदाहरणों नहीं दे सकता. मगर निजी आचरण में सादगी व सरलता और तुलना में शालीन भाषा भी उन्हें दूसरों से अलग करती थी.
सुशील मोदी भागलपुर से सांसद रहे, जो मेरा संसदीय क्षेत्र रहा है. उनसे कभी ऐसा परिचय नहीं रहा कि वे मुझे याद करते हों. मगर एक सुना हुआ संस्मरण- अपने चुनाव प्रचार के क्रम में मेरे गांव गये थे. अश्विनी चौबे साथ थे. वे भागलपुर के हैं, परिचित भी. अश्विनी जी ने ‘बाबा’ से परिचय कराते हुए बताया कि ये वाहिनी वाले श्रीनिवास जी के पिता हैं. उस समय भी शायद वे मुझे याद न कर सके हों, मगर सुशील मोदी ने झट उनके पैर छू लिये! एक स्थापित बड़े नेता के चरण स्पर्श करने से बाबा का मान तो बढ़ा ही. यह जरूरत पड़ने पर ‘गधे को भी बाप बना लेने’ के ‘सिद्धांत’ का उदाहरण हो सकता है. मगर अब तो राजनीति में दिखावे की भी इतनी विनम्रता नहीं बची है. इसलिए मुझे लगा कि यह उनके संस्कार में बसी विनम्रता हो सकती है.
निश्चय ही सुशील मोदी का असमय निधन बिहार की राजनीति के अपेक्षाकृत एक साफ सुथरे चेहरे का ओझल होना है. नमन!
- श्रीनिवास (Srinivash)
(श्रीनिवास रांची प्रभात खबर के संपादन से जुड़कर अवकाश प्राप्ति तक यहीं थे और पत्रकारिता का धर्म जारी रखा। आज रांची में रहते हैं। श्रीनिवास इमरजेंसी काल तक जेल में थे और बिहार आंदोलन के सेनानियों में से हैं और इन्हें जेपी सेनानी सम्मान और पेंशन मिलती है।)