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यह ‘विजयोत्सव’ था?

was this a vijayotsav
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श्रीनिवास, वरिष्ठ संवाददाता, लेखक स्वतंत्र पत्रकार। इनके अपने विचार हैं।

यह संसद का मानसून सत्र है, मगर इसे विशेष सत्र कहा गया. क्यों? ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का विजयोत्सव मनाने के लिए या उस पर चर्चा के लिए? सरकार और विपक्ष में मतभेद होते ही हैं, इस मुद्दे पर भी हैं. पहलगाम हमले के संदर्भ में, फिर ऑपरेशन सिंदूर के बारे में, उसे अचानक रोक दिये जाने के संदर्भ में विपक्ष लगातार सवाल करता रहा है.

सरकार के अंध समर्थकों (कथित मुख्य धारा की मीडिया सहित) को छोड़ दें तो ये सवाल आम आदमी के मन में भी उठते रहे हैं, जो सरकार या भाजपा के अंध विरोधी नहीं हैं. विपक्ष इस पर चर्चा करने के लिए संसद का सत्र बुलाने की मांग करता रहा था. मेरे जैसे आम आदमी ने स्वाभाविक ही यही समझा कि अंततः सरकार चर्चा के लिए तैयार हो गयी.

कांग्रेस सरकरों के ‘ब्लंडर’ अधिक गिनाये गये

मंत्रियों-सत्ता पक्ष के नेताओं ने कहा भी कि हम हर सवाल का जवाब देने के लिए तैयार हैं! विपक्ष ने सवाल पूछे, सरकार की ओर से रक्षा मंत्री सहित सत्ता पक्ष के अन्य सांसदों ने जवाब दिया भी, हालांकि सीधे सवालों का सीधा जवाब देने के बजाय आजादी के बाद से कांग्रेस सरकरों के ‘ब्लंडर’ अधिक गिनाये गये! खास बात यह कि इतने गंभीर मसले पर चर्चा चलती रही, पर प्रधानमंत्री अनुपस्थित रहे.

कल अचानक अवतरित हुए, ‘भक्तों’ के मुताबिक़ विपक्ष के आरोपों की ‘धज्जी’ उड़ाते हुए आपने नेहरू से लेकर इंदिरा तक, ‘सिंधु संधि’ से लेकर ’71 में पीओके को मुक्त नहीं कराये जाने की याद दिलाते हुए- और इस चुनौती को दरकिनार कर कि 29 बार युद्ध रुकवाने का दावा कर चुके अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को आप संसद में झूठा कह दें- पूरी चर्चा को ‘विजयोत्सव’ घोषित कर दिया!

यह ‘विजयोत्सव’ था? आपने कह दिया और यह ‘विजयोत्सव’ हो गया

आपने कह दिया और यह ‘विजयोत्सव’ हो गया? ऐसा था तो सत्र के प्रारम्भ में ही सरकार की ओर से ऐसा प्रस्ताव रखा जाना चाहिए था. विपक्ष सहमत होता, तो ऑपरेशन सिंदूर पर बहस आगे के लिए टाल दी जाती. सहमत नहीं होता तो विपक्ष विहीन सदन में ही ‘विजयोत्सव’ मना लेते, यानी खुद ही अपना जयगान कर लेते.

नहीं श्रीमान, यह ‘विजयोत्सव’ नहीं था. होता तो आप अनुपस्थित क्यों रहते? वह तो आप अपने स्तर पर, सरकारी संस्थाओं-संसाधनों को झोंक कर, भोंपू चैनलों की मदद से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ को अचानक रोक देने के बाद उसकी कथित सफलता के बाद से मना ही रहे हैं- फ़ौजी परिधान में हर जगह लग गये आपके फोटो लोगों ने देखे ही.

यहाँ तक कि रेलवे टिकटों पर भी आपको चिपका दिया गया! बेशक फिर भी आप ‘इतिहास’ में इसे दर्ज करा सकते हैं कि देश ने, संसद ने ‘विजयोत्सव’ मनाया!

प्रधानमंत्री ने अपने करीब एक घंटे के भाषण अंत एक अति साधारण- सी कविता की कुछ पंक्तियों से किया-

करो चर्चा और इतनी करो

रहे ध्यान बस इतना ही

मान सिंदूर और सेना का प्रश्नों में भी अटल रहे

हमला मां की धरती पर हुआ अगर

तो प्रचंड प्रहार करना होगा;

दुश्मन जहां भी बैठा हो

दुश्मन दहशत से दहल उठे….

क्या भारत सरकार पकिस्तान को ‘दुश्मन’ देश घोषित कर चुकी

जाहिर है, वह  ‘दुश्मन’ पकिस्तान है. तो क्या भारत सरकार पकिस्तान को ‘दुश्मन’ देश घोषित कर चुकी है? दोनों देशों के राजनयिक सम्बन्ध ख़त्म हो चुके हैं? नहीं. तो इशारों और शायरी में ‘दुश्मन’ कहने का कोई मतलब होता है? सवाल यह भी है कि क्या सचमुच यह ‘दुश्मन’ दहशत से दहल गया है? तो फिर कश्मीर में ‘ऑपरेशन महादेव’ चलाने की जरूरत क्यों पड़ गयी?

वैसे एनसीआरटी ने पाठ्यपुस्तकों में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शामिल करने का फैसला कर ही लिया है, उसमें एक चैप्टर विजयोत्सव का भी जुड़ जायेगा! मगर तत्कालीन शासकों के अनुकूल कुछ भी लिख देने से वह इतिहास नहीं हो जाता! आज आप पहले लिखे गये इतिहास को अपने ढंग से ‘दुरुस्त’ कर रहे हैं, कल आपके लिखे को भी दुरुस्त किया जायेगा! उस इतिहास में वह सब भी दर्ज होगा, जो आपको पसंद नही है! इतिहास हमेशा शासक की इच्छा और सहूलियत से ही नहीं लिखा जाता और इतिहास वही नहीं होता, तो पाठ्य पुस्तकों में दर्ज होता है.

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