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Women’s Position: निर्णय प्रक्रिया में महिलाएं कहां हैं?
Women’s Position: यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है कि भारतीय महिलाओं को बहुत पहले, बिना किसी संघर्ष के मताधिकार मिल गया था. मगर विधायिकाओं में महिला आरक्षण का मामला पुरुषवादी मानसिकता के दलों और नेताओं के विरोध के कारण अटका हुआ है. यह भारतीय समाज और राजनीति में भी हावी स्त्री विरोधी मानसिकता का नतीजा नहीं तो और क्या हो सकता है? आजादी के बाद संविधान ने महिलाओं को बराबर का अधिकार दिया. मगर राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति/ भागीदारी आज भी बहुत कम है. संसद में नौ से दस प्रतिशत. प्रांतीय सभाओं में तो और भी कम- छह से सात फीसदी. आज हर क्षेत्र में महिलाएं आगे बढ़ रही हैं. पंचायतों एवं निचले निकायों में आरक्षण के बाद वे बड़ी संख्या में निर्वाचित हुई हैं और अपनी भूमिका निभा रही हैं. शिक्षा और अन्य नौकरियों में तो वे आ ही रही हैं. जोखिम वाले क्षेत्र में भी बढ़ने की कोशिश कर रही हैं. वे पर्वतारोही हैं, अंतरिक्ष में जा रही हैं. साथ ही समाज परिवर्तन के लिए हो रही लड़ाइयों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं. राजनीति में भी कई दलों का नेतृत्व कर रही हैं. खेल, कला और साहित्य के क्षेत्र में भी अपना नाम दर्ज कर रही हैं.
फिर भी सार्वजनिक जीवन में उनकी हिस्सेदारी अपेक्षा के अनुरूप नहीं है. वे इतनी कम क्यों हैं? जाहिर है, उनके लिए आगे बढ़ने की राह तुलना में अधिक कठिन है, क्योंकि रुकावटें ज्यादा हैं. जोखिम अधिक है. पुरुषों की बराबरी में आने के लिए उन्हें एक पुरुष की तुलना में दस गुना ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है, ताकत लगानी पड़ती है. फिर भी वे हर जगह दिख रही हैं, अपनी क्षमता साबित कर रही हैं, यह भी बड़ी बात है.
पर सच यही है कि आम स्त्री परंपरा एवं व्यवस्था जनित भेदभाव की शिकार है, या कहें कि बहुत बेरहमी से शिकार हैं. हर रोज कहीं बलात्कार होता है. कहीं कोई डायन के नाम पर, कोई दहेज के नाम पर मारी जा रही है. मारपीट और छेड़खानी- यौन उत्पीड़न को तो शोषण ही नहीं माना जाता. यह तो ‘बेचारे’ पुरुषों से बस यों ही हो जाता है. और ऐसे दुष्कर्मी के खिलाफ बोलनेवाली पर आसानी से झूठी और बदनीयत होने का आरोप लग जाता है! बलात्कार के लिए प्रथम दृष्टया स्त्री को ही दोषी ठहराने की कोशिश होती है. कभी उसके कपड़ों पर, तो कभी उसके ‘असमय’ घर से बाहर निकलने पर गुस्सा किया जाता है; और अपराधी को उसकी ‘जवानी की भूल’ कह कर माफ किया जाता है. मगर जब नन्हीं बच्चियों के साथ बलात्कार होता है तो वहां किस भड़काऊ कपड़े और किस उकसावे की वहां होती है? जब घरों के अंदर अपनों के द्वारा दुष्कर्म होता है, तो वह और कहां सुरक्षित हो सकती है?
दरअसल बलात्कार का कोई तर्क नहीं होता. वह इस पुरुष शासित समाज व्यवस्था द्वारा पोसा गया आचरण है, जिसमें आरोपी पुरुष को बचाने की और पीड़ित औरत को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति आम रहती है. पूरा तंत्र, यहां तक कि न्यायिक तंत्र भी इससे मुक्त नहीं है. इसी तरह स्त्रियों के आर्थिक अधिकार भी बराबरी के नहीं हैं. संपत्ति पर तो उनका हक बहुत ही कम है. स्वयं अर्जित संपत्ति या अपने नाम की संपत्ति भी वास्तविक तौर पर उनकी नहीं है.
इन स्थिति को कैसे बदलें, और इसको बदलने का निर्णय कौन करेगा? सबसे बड़ा सवाल कि निर्णय निर्धारण की प्रक्रिया में औरतें कहां हैं? समाज में स्त्री की स्थिति बदले, इसकी पहल कौन करेगा? सभी जगह तो निर्णय पुरुष के हाथ में है. गांव में या सड़क पर, दफ्तरों में या न्यायालयों में- महिला कहां निर्णय लेने की हैसियत में आ सकी है? जहां देश की नीतियां तय होती हैं, वहां कितनी स्त्रियां पहुंची हैं? ऐसे में अहम सवाल है कि क्या बिना औरतों की पहल के यह स्थिति बदल सकती है?
आखिर समाज में जितने पुरुष हैं, कमोबेश उतनी ही औरतें भी हैं. उन्हें भी वोट देने का अधिकार है. फिर संसद और विधानसभाओं में इतनी कम औरतें क्यों? क्या स्त्री के वाजिब अधिकारों की बात पुरुष प्राथमिकता से उठायेंगे, उठाते हैं? आखिर आबादी में लगभग बराबर संख्या के बावजूद औरतों को लोकतांत्रिक प्रतिनिधि संस्थाओं में अपेक्षित प्रतिनिधित्व क्यों नहीं मिल रहा है? जब संख्या का इतना महत्व है, तो औरतों के हिस्से को कौन मार रहा है?
संविधान में ऐतिहासिक-सामाजिक कारणों से पीछे छूट गयी आबादी/समुदाय के लिए, नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है. पर विधायिकाओं में महिलाओं को आरक्षण देने के सवाल पर किसी न किसी बहाने सभी दल इसके खिलाफ एकजुट नजर आते हैं. महिला आरक्षण विधेयक दशकों से मंजूरी के लिए संसद में लटका हुआ है और किसी को उसकी चिंता नहीं है. इसलिए कि कोई नहीं चाहता कि स्त्रियां निर्णय निर्धारण में भी हिस्सेदार बनें. अभी वे कितनी भी ताकतवर क्यों न बन जायें, अंतत: उन्हें अपने दल के सांसदों, विधायकों और कार्यकर्तार्ओं (अधिकतर पुरुष) को खुश रखना पड़ता है. ऐसे में स्त्रियों के अधिकारों की कितनी चिंता की जाये. वैसे विश्व भर में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम ही है. पश्चिमी देशों में हालात कुछ बेहतर जरूर हैं.
भारत के राजनीतिक परिदृश्य में तो सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, मायावती, सुषमा स्वराज और वृंदा कारत जैसी कद्दावर महिलाएं अपनी पार्टियों का नेतृत्व कर रही हैं या प्रमुख भूमिका में हैं. दिवंगत जे. जयललिता तो अपने दल की सर्वेसर्वा थीं ही. ये नेत्रियां महिलाओं के मुद्दे उठा भी रही हैं. महिला सांसदों ने जेंडर आधारित हिंसा, महिला और बाल व्यापार, समान मजदूरी, कामकाजी स्त्रियों के मुद्दे ज्यादा उठाये हैं. फिर भी औरतों को राजनीतिक हक मिले, इसके लिए हो रहे प्रयास नाकाफी ही सिद्ध हुए हैं.
यह तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक महिलाएं निर्णय की प्रक्रिया में शामिल न हों. संसद व विधायिकाओं में महिलाओं की भागीदारी, उनका प्रतिशत बढ़ाना इसका एक कारगर उपाय हो सकता है. लेकिन हमारा राजनीतिक नेतृत्त्व इस दिशा में पूरी तरह उदासीन है,बल्कि शायद उसकी कोई रुचि ही नहीं है. शायद ही कोई इस बात से असहमत होगा कि महिलाओं, यानी आधी आबादी के समुचित प्रतिनिधित्व और सार्थक भागीदारी के बगैर किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था को सफल नहीं माना जा सकता.
इसी कारण हमारा लोकतंत्र अधूरा है और इस स्थिति को बिना अधूरा ही रहेगा. औरतें अपने शरीर के विषय में फैसला ले सकें, अपने परिवार में फैसले ले सकें और समाज और देश संबंधी निर्णयों में बराबर से हिस्सेदार हो सकें, इसके बिना समाज की गति सही नहीं होगी, और न ही संतुलित समाज का निर्माण संभव है.
(स्त्री किताब में प्रकाशित डॉ. कनक का लेख)
(संभवा इंजोर, अगस्त, 2010)