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युद्ध का माहौल और नागरिक बोध
बीता सप्ताह पहलगाम में पर्यटकों पर आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैनिक तनाव की सुर्ख़ियों से भरा रहा। तनाव शांत हुआ है। फिर भी खबरें अभी कई दिनों तक आती रहेंगी। इस पूरे प्रकरण में कुछ मुख्य परिघटनाओं और रुझानों पर एक संतुलित नागरिक समझदारी विकसित करने की जरूरत है।
मंथन सामाजिक कार्यकर्ता (जसवा)
युद्ध का माहौल और नागरिक बोध क्या होना चाहिए? पहलगाम की आतंकी घटना के बाद किसी भी भारतीय नागरिक की प्रतिक्रिया में कम से कम तीन बातें होनी चाहिए थीं। पहला , आतंकियों के खिलाफ गुस्सा और उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग। दूसरा पर्यटकों से भरे स्थान पर सुरक्षाकर्मियों की अनुपस्थिति और सुरक्षा चूक पर सरकार से सवाल।
युद्ध का माहौल और नागरिक बोध
तीसरा स्थानीय कश्मीरियों के द्वारा पर्यटकों को बचाने के लिए जान जोखिम पर लेने के साहसिक कार्यों की सराहना। कश्मीरियों के द्वारा पर्यटकों को बचाने की बुनियादी भावना इंसानियत से प्रेरित है। लेकिन दुख की बात है कि टेलीविजन न्यूज़ मीडियाकर्मियों, हिंदी अखबार- नवीसों और सोशल मीडिया पर व्यक्त नागरिक प्रतिक्रिया में ऐसी संतुलित अभिव्यक्तियां बहुत कम थीं।
अधिकांश प्रतिक्रियाओं में पाकिस्तान के प्रति गुस्सा के साथ साथ मुसलमानों के प्रति एक आम नफरत भी थी। आम मुसलमानों के प्रति जाहिर गुस्सा सच के खिलाफ तो था ही, कश्मीरियों के अनुकरणीय इंसानी साहस का अपमान भी था, एक कृतघ्नता, एक नमकहरामी भी थी। दूसरी ओर भी ऐसी संवेदनशील घटना पर सरकार की अक्षमता पर असंयमित आलोचना हावी थी। संतुलित और समग्र टिप्पणियों की काफी कमी रही।
भारतीय सेना की कार्रवाई पर तो सरकारपरस्त मीडिया ने हवाई झूठों की बमबारी ही कर दी। ऐसे झूठ की , जिसकी असलियत हर कोई जानता था।
अब युद्धविराम हो गया, राहत की बात
अब युद्धविराम हो गया है। यह राहत की बात है। अब जानें नहीं जाएंगी । उन्माद घटेगा। माहौल में शांति आएगी। सीमा वाले प्रांतों में लोगों की आवाजाही सामान्य होगी। लेकिन युद्धविराम या तनाव विराम के बारे में जो खबरें हैं, वे भारतीय राष्ट्र की गरिमा को धुंधला करती हैं। सच हो या झूठ, ट्रंप ने एक तरह से भारत पर 50 अमेरिका के वर्चस्व की छवि गढ़ी है।
यह छवि बनी है कि भारतीय शासक अमेरिकी शासन के वर्चस्ववादी बयानों के प्रति भी अपनी स्पष्ट असहमति व्यक्त करने की स्थिति में नहीं हैं। युद्धविराम के बारे में ट्रम्प और अमेरिकी राजनयिकों के बयान के बाद भारत के मंत्रियों और अधिकारियों के जो बयान आए उसमें भी यह जरूरी स्पष्ट स्वर नहीं आया कि अमेरिकी बयान सच नहीं हैं।
कोई भी देशभक्त भारतीय इस अस्पष्ट और कमजोर छवि को मंजूर नहीं कर सकता। लेकिन भाजपा के शायद ही किसी समर्थक ने अमेरिकी बयान और उस पर भारतीय शासकों की चुप्पी पर सवाल नहीं उठाया। वे अपना गुस्सा उतारने के लिए बलि का बकरा तलाशते रहे । और भारतीय सरकार के एक प्रतिनिधि अधिकारी विक्रम मिश्री के बयान पर आग और अभद्रता उगलने लगे। सच और सभ्यता की हर हद तोड़ विक्रम मिसरी के परिजनों के खिलाफ भी बोलने लगे।
सर्वदलीय बैठकों में उपस्थित ना होना
इस पूरे प्रकरण में अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुछ भूमिका दुखद है । देश के शासन के सर्वोच्च प्रतिनिधि होने के बावजूद वे सर्वदलीय बैठकों में उपस्थित नहीं रहे। यह बड़ी लोकतंत्रविरोधी गैरजिम्मेदारी है। इससे तो यह भी भ्रम बना सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी संवादों, बहुदलीय संवाद के मामले में अक्षम और आत्मविश्वासहीन हो गए हैंं।
वे एकलाप में ही प्रभावशाली हैं। यह भी लग सकता है कि नरेंद्र मोदी अपनी लोकप्रियता के कारण सरकार का बस एक चेहरा रह गये हैं। सत्ता की शक्ति के केंद्र दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के पास खिसकते जा रहे हैं ।
प्रधानमंत्री ने युद्धविराम के बाद राष्ट्र के नाम अपना जोशीला संदेश दिया है। यह संदेश मुख्य रूप से युद्धविराम के पीछे ट्रम्प की निर्णायक छवि का भ्रम बनने की वजह से होने वाले राजनीतिक घाटे की भरपाई पर ही केन्द्रित रहा। उसी के लिए तिरंगा यात्राओं का कार्यक्रम पेश हुआ लगता है।
युद्ध के माहौल के बाद मोदी का भाषण
मोदी के भाषण से एक पक्ष पूरी तरह से छूटा रह गया। इस पक्ष का छूटना भारत के राजनीतिक नागरिक वातावरण के लिए हानिकारक है। इस पूरे दौर में सरकार समर्थक और मोदी भक्तों ने जो उत्तेजक और अराजक माहौल अपने बयानों के माध्यम से बनाया, वह देश के सारे नागरिकों की एकजुटता के लिए घातक था।
प्रधानमंत्री को कम से कम असभ्य और अराजक बयानों के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर करनी चाहिए थी। अपने समर्थकों से संयम की अपील करनी चाहिए थी। अगर सरकार भक्तों की ऐसी ही उग्रता और असभ्यता चलती रही तो वह खुद भारतीय जनता पार्टी और भाजपा सरकार के लिए भी एक दिन संकट का कारण बनेगी।
‘इंदिरा इज इंडिया’ बयान की मानसिकता
कोई भी सच्चा देशभक्त, सच्चा भारतीय सरकार और देश को एक नहीं मान सकता। मोदी को भारत का पर्याय नहीं मान सकता। अगर ‘इंदिरा इज इंडिया’ बयान की मानसिकता गलत थी, निरंकुशता समर्थक थी तो मोदी को भारत की तरह लेने वाला और मोदी की आलोचना को भारत की आलोचना समझने वाला मानस भी निरंकुशता के समर्थन में ही है।
देश, लोकतंत्र और नागरिक के विरोध में है। इस सच को स्वीकार करते हुए हर नागरिक को अपनी भूमिका में, अपने आचरण में विवेकसम्मत, संयमित और संविधानपक्षीय होने की जरूरत है
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